योगसार - संवर-अधिकार गाथा 221
From जैनकोष
मोह से बाह्य पदार्थ सुख-दु:खदाता -
आत्मन: सकलं बाह्यं शर्माशर्मविधायकम् ।
क्रियते मोहदोषेणापरथा न कदाचन ।।२२१।।
अन्वय :- मोह-दोषेण सकलं बाह्यं आत्मन: शर्म-अशर्म-विधायकं क्रियते । अपरथा कदाचन न (क्रियते) ।
सरलार्थ :- मोहरूपी दोष के कारण ही संपूर्ण बाह्य पदार्थ जीव को सुख-दु:ख देने में निमित्त बनते हैं अन्यथा मोहरूपी दोष न हो तो कोई भी बाह्य पदार्थ किसी भी जीव को किंचित् मात्र भी सुख-दु:ख देने में निमित्त नहीं होते । इसका अर्थ मोह ही सुख-दु:खदाता है ।