योगसार - संवर-अधिकार गाथा 222
From जैनकोष
वचनों से कोई निंद्य अथवा स्तुत्य नहीं होता -
नाञ्जसा वचसा कोsपि निन्द्यते स्तूयतेsपि वा ।
निन्दितोsहं स्तुतोsहं वा मन्यते मोहयोगत: ।।२२२।।
अन्वय :- अञ्जसा वचसा क: अपि (जीव:) न निन्द्यते वा (न) स्तूयते अपि; अहं निन्दित: अहं वा स्तुत: (इति) मोहयोगत: मन्यते ।
सरलार्थ :- वास्तविक देखा जाय तो वचनों से कोई निंद्य अथवा स्तुत्य नहीं होता । मोह अर्थात् मिथ्यादर्शन के कारण `अज्ञानी मेरी निन्दा हो गयी अथवा मैं स्तुत्य बन गया' ऐसा व्यर्थ ही मान लेता है ।