वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1002
From जैनकोष
यदक्षविषयोद्भूतं दु:खमेव न तत्सुखम्।
अनंतजंमसंतानक्लेशसंपादकं यत:।।1002।।
वास्तविक आनंद का स्वरूप समझ लेने पर धर्मपालन की पात्रता― अपने आप पर कृपा करके पहिले यह निर्णय तो बना लें कि सुख अथवा आनंद किसका नाम है? यदि यह चित्त में समा जायगा कि ज्ञान में ज्ञानस्वरूप आये, ज्ञानस्वरूप का ज्ञान बना रहे, ऐसी एक सामान्य स्थिति से उत्पन्न हुआ जो आल्हाद है, आनंद इस ही का नाम है। तो हमें आनंद के मार्ग की दिशा मिल जायगी। और, जब कोई यह ही समझ रहा है कि पंचेंद्रिय के विषयों के भोगने में जो सुख होता है वह ही सुख है और हमें सुखी रहना चाहिए, तो उसे कभी शांति का मार्ग प्राप्त नहीं हो सकता। ये इंद्रियसुख, इंद्रिय के विषय सेवन से जो सुख होता है वह सुख, दु:ख ही है। सुख नाम नहीं हे उसका। आनंद नहीं कहते उसे। क्योंकि इंद्रियजनित सुख अनंत संसार की संतति को, क्लेशों को प्राप्त करने का एक कारण है। इंद्रिय सुख के अनुराग से ही तो यह जन्म-मरण, शरीर मिलता और अनेक प्रकार के इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदिक क्लेश हो रहे हैं। ये सुख सुख नहीं हैं, यह निर्णय करना बहुत बड़ा काम है। धर्म के क्रियाकांडों में जो चल रहे हैं और इस ओरसे परिचित हैं वे जरा विश्राम लें, उस क्रियाकांड के श्रम को जरा छोड़करथोड़ा इस ओरचिंता करें कि हम धर्म के पात्र कब बन सकते हैं? जिसको यह निर्णय हुआ कि ज्ञानस्वरूप में ज्ञान को प्रतिभासित कर देने में ही वास्तविक आनंद है। और, अन्य वृत्तियों में आनंद नहीं है, ऐसा निर्णय जिसको हो वही धर्ममार्ग में अपनी कदम सही ढंग से रख सकता है।
इंद्रियसुखों की क्लेशरूपता का चित्रण― ये इंद्रिय के विषय इनमें उत्पन्न हुआ जो सुख है वह सुख कितने क्लेशों से भरा है सो देखिये― प्रथम तो यह सुख पराधीन है। किस किसके आधीन है? मूल में तो यह पुण्य कर्म के आधीन है। कर्म का उस तरह का उदय हो तो यह इंद्रियसुख की बात प्राप्त हो। कर्म भिन्न चीज है वह जैसा होना हे होता है, उस पर इस आत्मा का मूलत: अधिकार नहीं है, इसलिए पराधीन होने के कारण यह सुख सुख नहीं है। नीतिकार कहते हैं कि पराधीन सुख से तो स्वाधीन दु:ख भला है और यह बात अध्यात्म में भी घटित कर लो। स्वाधीन होकर तपश्चरण करते हुए अगर कोर्इ क्लेश आ रहे हैं, तो उनमें आनंद पाया जा रहा है और जो पराधीन विषयसुख हैं, उनकी इच्छा की, बस वही से दु:ख प्रारंभ हो गया। फिर प्रवृत्ति करेंगे तो वहाँ भी दु:ख होगा ही। तो ये इंद्रियसुख पराधीन हैं, इतने पर भी कोई कहे कि रहो पराधीन, हमें सुख तो मिलेगा। अरे पराधीन है इतना ही ऐब नहीं, किंतु ये विनाशीक भी हैं। इंद्रियसुख नष्ट हो जाते हैं, सब लोग समझते हैं। कोई यह कहे कि हो जाने दो नष्ट। जितनी देर को मिलेगा, उतनी देर तो मौज मान लेंगे। सो सुनो। उस सुख में निरंतर सुख नहीं बसा हुआ है। बीच में दु:ख पड़े हुए हैं। दु:ख अधिक पड़े हुए हैं। कोई सा भी सुख देख लो, उन सुखों की प्रक्रिया में बीच-बीच कितने दु:ख उठाने पड़ते हैं। क्षोभ और आकुलता का दु:ख तो निरंतर बना हुआ है। कोई कहे कि बसा रहने दो दु:ख, हमारी तो उस पर दृष्टि ही नहीं है, हमें तो सुख अच्छा लग रहा है। तो सुनो― इतने ही ऐब नहीं, किंतु यह इंद्रियज सुख पाप का बीज है। आगे बहुत काल तक दु:ख भोगना पड़ेगा। आज लग रहा है भला इंद्रियजसुख, लेकिन नरक आदिक के दु:ख जब भोगना पड़ेगा तो कितना दु:खी होना पड़ेगा। तो इस इंद्रियसुख में इतने ऐब बसे हुए हैं। उसमें क्या प्रीति करना? यह तो अनंत संसार संतति के क्लेश बढ़ाये इस तरह का कारण है। इंद्रियसुख दु:ख ही है इस कारण उस इंद्रियसुख में लालसा न रखना और इंद्रियविषयों पर विजय प्राप्त करना यह पौरुष कषायों को समूल नष्ट करने का साधन बन जाता है।