वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 156
From जैनकोष
निसर्गगलितं निंद्यमने का शुचिसंभृतं।
शुक्रादिबीचसंभूतं घृणास्पदमिदं वपु:।।156।।
शरीर की असारता―अशुचि भावना का अब वर्णन किया जा रहा है। अशुचि कहते हैं अपवित्र को अर्थात् जो पवित्र न हो उसे अशुचि कहते हैं। यह शरीर घृणा का स्थान है। इस शरीर में कहाँ कौनसी सारभूत वस्तु है। रोम, चाम, खून, मज्जा मांस, हड्डी, वीर्य मल से लेकर बाह्य तक सभी पदार्थ अशुचि पड़े हुए हैं और फिर यह शरीर निसर्ग गलित है अर्थात् स्वभाव से यह शरीर गलने की ओर ही रहता है, इस देह से मल झरता रहता है, रोम रोम से पसीने के रूप में अथवा जो मल के नवद्वार है उन द्वारों से मल झरता रहता है, और फिर यह शरीर स्वयं गलने की ओर से रहता है, यह निंद्य है। मोहवश ही यह मोही प्राणी ऐसे अपवित्र शरीर को उच्च और रमणीक मानता है, किंतु वहाँ रमने के योग्य कुछ भी तत्त्व नहीं है।
शरीर के स्नेह में बंधन का महा ऐब―भैया ! यह शरीर अपवित्र और अरम्य तो है ही, एक महा ऐब और है कि इसके स्नेह में है व्यर्थ का बंधन, व्यर्थ का क्षोभ, नाना उपद्रवों की यातनाएँ। सभी प्रकार से इस अशुचि शरीर का संबंध इस जीव का अहित ही करता है। अशुचि पदार्थों से तो यह शरीर भरा है ही, साथ ही यह भी समझिये कि यह शरीर उत्पन्न कहाँ से होता है? खून रज इन्हीं के संबंध से तो इस शरीर का निर्माण हुआ है। तो जिस शरीर का स्थान भी अपवित्र है, जिस शरीर की वर्तमान स्थिति भी अपवित्र है और भावी स्थिति में भी मरने के बाद यह शरीर पड़ा रहे तो वह कितना अपवित्र रहता है? तो अपवित्रता प्रारंभ से अंत तक जिसमें बनी रहती है ऐसे शरीर के प्रति हे मुमुक्ष आत्मन् ! रति मत करो। यह शरीर रमने के योग्य पदार्थ नहीं है।