वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 168
From जैनकोष
अजिनपटलगूढं पंजरं कीकमानाम् कुथितकुणपगंधै: पूरितं मूढ गाढम।
यमवदननिषण्णं रोगभोगींद्रगेहं कथमिह मनुजानां प्रीतये स्याच्छरीरम्।।168।।
देह के अशुचि पिंड पर चर्म का आवरण―अशुचिभावना के कथन को पूर्ण करते हुए इस अंतिम छंद में आचार्यदेव कह रहे हैं कि कैसा तो यह असार शरीर है और यह मनुष्यों को प्रीति के लिए कैसा बन रहा है? मनुष्य का यह शरीर चर्म के पदार्थों से बना हुआ है। जैसे घर में किसी बड़े अतिथि का आगमन हो तो अस्तव्यस्त पड़े हुए कूड़े के ढेर पर बड़े चमकीले सुहावने कपड़े का पर्दा डाल दिया जाता है, तो वह पर्दा देखने में तो बड़ा सुहावना कांतिमान नजर आता है पर पर्दे के भीतर क्या है? पर्दा उठाकर यदि कोई देख ले तो अस्तव्यस्त नाना प्रकार के लोहा मिट्टी कूड़ा का ढेर लगा हुआ है, ऐसे ही यह चमड़े का पर्दा चारों ओर से पड़ा हुआ है। पैरों से लेकर सिर तक पीठ पेट सभी जगह चमड़े का पर्दा पड़ा हुआ है। इस पर्दे को देखकर मोहीजन इसमें अनुराग करते हैं। यह चमकीला सुहावना एकसा चिकना हर प्रकार से एक दिल बहलाव करने वाला मान लिया है, किंतु इस पर्दे के भीतर है क्या? पर्दा उठाकर ज्ञान से भीतर निरखकर देखो तो हाड़-मांस का लोथड़ है और रागरुधिर आदिक दुर्गंधित चीजों से परिपूर्ण है।
शरीर की विनश्वरता―अति दुर्गंधित है यह असार शरीर और फिर इतने पर भी यह रहा आये सो भी नहीं रहता। काल के मुख में बैठा हुआ है यह शरीर। जैसे किसी बड़े मगर के मुख में कोई जंतु रखा हुआ बैठा हो तो उसकी क्या कुशल है? ऐसे ही यमराज के मुख में अर्थात् आयुक्षय के प्रसंग में यह बैठा हुआ है, इसकी क्या कुशल है? किसी भी समय अचानक मरण हो जाता है। लोग तो बहुत-बहुत वर्षों के मंसूबे बांधते हैं, यह करेंगे, यह करना है, लेकिन अचानक कब मर जाना है इसका कुछ निर्णय नहीं करते हैं। यह शरीर यम के मुख में बैठा हुआ है और फिर जितनी देर को बच भी जाय यम के मुख से अर्थात् जीवित भी रहे उतने काल भी तो यह रोगरूपी सर्पों का घर है। जैसे जिस घर में सर्प रह रहे हों तो उस घर की क्या कुशल है, ऐसे ही शरीर में जगह-जगह रोग बस रहे हों, कहीं कुछ कहीं कुछ तो उस शरीर की क्या कुशल है? इस शरीर पर इतना अहंकार करना, प्रीति करना, यह शरीर प्रीति करने योग्य कैसे हो सकता है?
अशुचिभावना का उपकार―अशुचि भावना में यह भाव रखना चाहिए कि आत्मा तो स्वभाव से निर्मल है, उसमें कहीं मल होता ही नहीं है। आत्मस्वरूप से देखो तो उसमें मल कहाँ चिपक सकता है, किंतु कर्मों के निमित्त से जो इसके शरीर का संबंध है उसे यह जीव मोह से कठिन मानकर भला जानता है। यह मनुष्यों का शरीर सर्वप्रकार से अपवित्रता का घर है। ऐसे अपवित्र शरीर को पाकर हम कोई हित की कल्याण की बात कर सकें, उसका उपाय यही है कि अशुचि भावना भी करके शरीर से विरक्त होकर आत्मा के निर्मलस्वरूप में रमने की रुचि बनायें। यह बात मनुष्यभव में हो सकती है। संयम की पूर्णता, साक्षात् मोक्षमार्ग इस मनुष्य भव से ही बनता है, तब इसका किस ढंग से उपभोग करना, कैसे भावना बनाना, कैसी दृष्टि करना, कैसी प्रवृत्ति करना ये सब योग्य समझकर उनमें लगे और अशुचि शरीर से निवृत्त होकर पवित्र आत्मतत्त्व में अपना उपयोग जमायें, यही है इस भावना का सारभूत तात्पर्य।