वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 171
From जैनकोष
यमप्रशमनिर्वेदतत्त्वचिंतावलंबितं।
मैत्र्यादिभावनारूढ मन: सूते शुभास्रवम्।।171।।
यम व्रत में शुभास्रव की कारणता―आस्रव दो प्रकार के हैं―एक शुभाश्रव और एक अशुभास्रव। शुभास्रव का वर्णन इस श्लोक में किया है। ऐसा मन शुभास्रव को उत्पन्न करता है जो मन यम प्रसंग निर्वेग और तत्त्वचिंतन का अवलंबन लिए हुए हो। वह मन जो मैत्री प्रमोद कारुण्य और माध्यस्थ भावना में आरूढ़ हो, ऐसा ही यम अर्थात् यह उपयोग यही आस्रव शुभास्रव को उत्पन्न करता है। यम कहते हैं उसे जो जिंदगीपर्यंत के लिए त्याग है। जैसे अणुव्रत और महाव्रत। कोई पुरुष कहे कि मैं तीन वर्ष के लिए महाव्रत ग्रहण करता हूँ तो वह स्वच्छंद प्रवृत्ति करने वाला है, महाव्रत का धारण जंमपर्यंत के लिए होता है। जैसे महाव्रत का पालन यावत् जीवनभर के लिए हुआ करता है ऐसे ही अणुव्रत का ग्रहण यावत् जीवनपर्यंत के लिए हुआ करता है। हाँ, अणुव्रतीमहाव्रत धारण कर लें तो यह और भी अच्छा होगा। कोई कहे कि मैं 2 वर्ष के लिए अणुव्रत ग्रहण करता हूँ तो ऐसा नहीं होता। जो ग्रहण करे वह सदा के लिए ग्रहण करे, यही यम कहलाता है।
नियम व्रतों में शुभास्रव की कारणता―नियम नियत समय तक की प्रतिज्ञा को कहते हैं। जैसे एक दिन का उपवास ठान लिया, हम एक दिन का उपवास करेंगे, कल के दिन तो यह नियम है। सदा तो यह अनशन वाला रहेगा नहीं।मैंने एक दिन का नियम लिया, ऐसा कोई करे तो यह नियम में शामिल है, यम में शामिल नहीं है। हाँ, यह बात अवश्य एक धर्मानुराग की होनी चाहिए कि यह कल्पना न बनाए कि मेरा 24 घंटे का त्याग है, ये 24 घंटे निकलने पर फिर सभी चीजें अच्छी-अच्छी मिष्टान्न वगैरह बनाकर खायेंगे। इस प्रकार सीमा से बाहर की स्थिति में विकल्प न होना चाहिए, यह एक इसमें अतिशय वाली बात होनी योग्य है। कुछ लोग ऐसा अपना बल रखते भी हैं, किंतु अक्सर लोग उपवास करने के बाद यह सीमा बराबर ध्यान में रखते हैं कि सुबह 7 बजे तक के लिए त्याग है। अब कितनी देर रह गयी? अभी 2 घंटे बाकी हैं, तीन घंटे बाकी हैं। बजने तो दो 7 अभी अच्छा-अच्छा बनाकर खायेंगे। ये सीमा रखने की स्थिति का विकल्प बना हुआ है, वह अतिशय नहीं पैदा करने देता। हमारा कर्तव्य है कि नाना विकल्प न बना लें। विकल्प प्राय: सबमें बने ही रहते हैं। भाद्रपद सुदी चतुर्दशी को उपवास करने वाले लोग जब से ही उपवास ठाना तभी से क्या यह चित्त में नहीं रखते कि आने तो दो पूनम, सुबह के 6 बजते ही अच्छा-अच्छा बनाकर खायेंगे, ऐसा विकल्प न बनाना चाहिए। अणुव्रत और महाव्रत सीमा लेकर नहीं धारण किए जाते, इस कारण यह यमरूप व्रत हैं।
प्रशमभाव से शुभ आस्रव―प्रशम कषायों की मंदता होना, क्रोध, मान, माया, लोभ, सभी कषायें मंद होना यह प्रशम कहलाता है। कुछ लोग ऐसा कहने लगते कि हमारे तो और कोई कषाय नहीं है, सिर्फ क्रोधभर नहीं छूटता। क्या उसकी यह बात सही है? जिसके क्रोध है उसके सब कषायें हैं और जिसके कोई भी एक कषाय हो, बुद्धिपूर्वक प्रायोगिक कोई भी कषाय हो उसके सभी कषायें हैं। जैसे क्रोध के शमन बिना प्रशम नहीं हाता ऐसे ही मान, माया, लोभ कषायों के शमन बिना भी प्रशमभाव नहीं होता है। यों प्रशमभाव का अवलंबन लेने वाला शुभास्रव को उत्पन्न करता है। शुभास्रव को उत्पन्न करने वाले भाव क्या होते हैं? इस प्रकरण में यम, नियम और प्रशम का वर्णन तो किया, अब आगे और भी तत्त्वों का वर्णन होगा।
निर्वेदभाव से शुभ आस्रव―शुभास्रव किन-किन परिणामों से होता है। उनका वर्णन इस छंद में है। निर्वेद परिणाम से सहित मन शुभास्रव को उत्पन्न करता है। निर्वेद का अर्थ विधिपरक और निषेधपरक दोनों प्रकार से है। संसार से विरक्ति का आना सो निर्वेद है और धर्म में अनुराग होना भी निर्वेद है। ये दोनों बातें अत्यंत भिन्न आधाररूप नहीं हैं। किंतु वैराग्य हो वहाँ अनुराग होता है। जहाँ धर्मानुराग हो वहाँ वैराग्य होता है तो वैराग्य और धर्मानुराग इन दोनों से समन्वित परिणाम निर्वेदभाव है। जहाँ निर्वेदभाव है वह मन शुभास्रव को उत्पन्न करता है।
तत्त्वचिंतन से शुभ आस्रव―तत्त्वचिंतन से सहित मन पुण्यास्रव को करता है। वस्तु का सहजस्वरूप कैसा है, विकार किस प्रकार आता है आदिक अनेक प्रासंगिक तत्त्वस्वरूप का चिंतवन करना यह एक पवित्र परिणाम है और इस तत्त्वचिंतन परिणाम से सहित मन शुभास्रव को करता है।
चार प्रकार की और भी पवित्र भावनाएँ होती हैं―मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य। ये समस्त भाव शुभास्रव को उत्पन्न करता है।
मैत्रीभाव से शुभ आस्रव―समता के प्रसंग में यह चार प्रकार की भावनाओं का बहुत विशेष सहयोग है। संसार के समस्त जीवों में मैत्री परिणाम जगे वहाँ ही समता प्रकट होती है। समता का नाम सामायिक है। समता वहाँ ही संभव है जहाँ सबको समान समझ लिया जाय। सम का परिणाम का नाम समता है। जगत के सभी जीव मेरे ही समान हैं, इस प्रकार की दृष्टि जगने पर समता प्रकट होती है, मित्रता प्रकट होती है। जिस दृष्टि से सब जीव समान है उस दृष्टि का एक ऐसा अपूर्व बल है कि उस दृष्टि के साधक पुरुष को विह्वलता नहीं आती। सभी जीव निगोद से लेकर सिद्धपर्यंत अशुद्ध और शुद्ध सभी जीव किस स्वरूप से अस्तित्व रखते हैं उस स्वरूप की दृष्टि से देखा जाय तो सबका एक समान स्वरूप है। उस स्वरूप की दृष्टि में समता प्रकट होती है। और तब अपने समान जिन्हें समझा है उनमें दु:ख उत्पन्न न हो, ऐसी अभिलाषा का जगना प्राकृतिक बात है। समस्त जीवों में दु:ख उत्पन्न न हो, ऐसी अभिलाषा करने का नाम मैत्री भाव है। मैत्री परिणाम से पुण्य का आस्रव होता है।
गुणियों में प्रमोदभाव से शुभ आस्रव―गुणीजनों को देखकर हृदय हर्ष विभोर हो जाय, इस परिणाम का नाम प्रमोद है। देखिए अपना चित्त अपना उपयोग अपने आपमें है। रत्नत्रय का स्वरूप स्मरण करके रत्नत्रयधारियों की अंतर्वृत्ति विज्ञान आदि करके हृदय में हर्ष का परिणाम न जगे तो समझिये कि अभी धर्म में प्रीति ही नहीं हुई है। किसी धर्मात्मा के प्रति विनय करके, हर्षित चित्त करके अपनी एक पुण्यवृत्ति बनाई जाती है, वह खुद के भले के लिए है। किसी पर ऐहसान लदने के लिए अथवा लोक में अपनी ख्याति चाहने के लिए नहीं है। यह जीव खुद-खुद में खुद का लाभ उत्पन्न करें ऐसी स्थिति पाने के लिए यह बात बहुत जरूरी है कि गुणीजनों को देखकर हृदय में प्रमोदभाव जगे। दिखावटी प्रमोद नहीं हो कि शास्त्र में लिखा है कि धर्मात्मा जनों से, गुणीजनों से प्रमोद भाव करना चाहिए, सो अपनी मुद्रा बनाकर अपनी जबरदस्ती ही वृत्ति बनाकर प्रमोद का पार्ट बना लेना, यह कोई पुण्यास्रव का हेतु नहीं है। जिसको अपने शुद्ध सहजस्वरूप में प्रीति है उसको रागांश रहने तक शुद्ध सहज स्वरूप के आराधकों में प्रमोद रहता ही है। यह प्रमोदभाव पुण्य का आस्रव करने वाला है।
अनुकंपाभाव से शुभ आस्रव―दया परिणाम―दु:खी जीव को देखकर दयाभाव करना। प्राय: ऐसी बात लोगों में होती भी है। निकट भूखे बैठे हुए किसी को देखकर खुद ही तो खाये और दूसरे को कुछ न दे, ऐसी बात नहीं बनती है। बल्कि करते तो लोग यहाँ तक हैं कि पास में कोई कुत्ता आदिक जानवर बैठा हो तो उसे कुछ खाना देकर स्वयं भी खाते रहते हैं। ऐसे ही समस्त वृत्तियों में समझिये कि जहाँ दु:खी जीवों को निरखा उन्हें दु:खी ही देखते रहें और खुद बड़े शौक शान से रहा करें, यह महापुरुषों से नहीं बनता है। उद्दंड और विषयों के तीव्र अभिलाषी अज्ञानी जन तो ऐसा कर सकते हैं, किंतु जिनके कुछ भी विवेक जगा है उनसे यह बात नहीं बन सकती कि सामने तो अत्यंत दु:खी भूखा प्यासा स्थानरहित कोई पुरुष रहता हो और खुद व्यर्थ के अनाप सनाप खर्च कर करके अपनी उदरपूर्ति में लगे हों, यह बात बड़े पुरुषों से नहीं बनती है, शोभायोग्य भी बात नहीं है। ज्ञानी जीव दु:खी जीवों को निरखकर करुणाभाव लाते ही हैं, मन में और जिस किसी प्रकार जिससे कि खुद के धर्म में बाधा न आये और दूसरों का उपकार हो जाय, ऐसी योग्य विधि से दु:खी जीवों के दु:ख को दूर करने का यत्न करते हैं। इस अनुकंपा का परिणाम पुण्यबंध का कराने वाला है।
माध्यस्थ्यभाव से शुभ आस्रव―चौथी भावना है माध्यस्थ्यभाव। जो जीव विपरीत वृत्ति वाले हैं, उद्दंड हैं, निपट अज्ञानी हैं ऐसे जीवों में राग अथवा द्वेष न करके अपने को मध्यस्थ बनाना यही है माध्यस्थ्यभाव। उद्दंड पुरुष से राग करके भी लाभ नहीं पाया जा सकता और द्वेष करके भी लाभ नहीं पाया जा सकता। अतएव जो ज्ञानी है उसमें माध्यस्थ्यभाव ही रखना चाहिए, इस माध्यस्थ्य परिणाम में उदारता, त्याग, क्षमा सभी गुण बसे हुए हैं। यों ये 4 प्रकार के परिणाम भी आत्मा में समता को उत्पन्न करते हैं। सब जीवों में मित्रता हुई तो समानता तभी हुई ना? गुणियों को देखकर हर्ष किया तो अपना ही बढ़ावा करके गुणियों के बराबर बनने का काम हुआ ना। दु:खी जीवों को देखकर दया का परिणाम किया तो उस दु:खी का दु:ख मिटेगा तो वह उसके समान बन गया ना और माध्यस्थ्य परिणाम में तो समानता की बात कही ही गई है। यों ये 4 परिणाम समता के पोषक हैं और पुण्यास्रव को उत्पन्न करने वाले हैं।