वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 67
From जैनकोष
नायाता नैव यास्यंति केनापि सह योषित:।
तथाप्यज्ञा: कृते तासां प्रविशंति रसातलम्।।67।।
स्त्रीरति का अनौचित्य― इस संसार में स्त्री न किसी के साथ आयी है और न किसी के साथ जायेगी। अनित्यभावना में समग्र वस्तुवों की अनित्यता बताकर इस श्लोक में केवल स्त्री की अनित्यता का कथन किया है। इसका कारण यह है कि मनुष्यों की सर्वाधिक रति स्त्री में होती है। किसी की स्त्री न रहे और धन वैभव माल बहुत कुछ हो तो वह अपने को ऐसा महसूस करने लगता है कि मैं कहाँ हूँ आदमी, कहाँ हूँ गृहस्थ? मेरा तो कुछ भी नहीं है। क्या है? मोहीजनों का स्त्री के प्रति अधिक आकर्षण है। तो तत्संबंधी मोह दूर करने के लिये स्त्री की अनित्यता बताई गई है, कि ये स्त्रीजन न साथ आई हैं, न जायेंगी और साथ-साथ रहेंगी, यह तो प्रकट दिखता है। 20-25 वर्ष की उमर के बाद ही तो स्त्री मिली। बचपन से तो स्त्री संग में थी ही नहीं और न स्त्री साथ जायेगी― यह भी दिखता है, फिर उनके लिये ये अज्ञानी प्राणी क्यों रसातल में प्रवेश कर रहे हैं?
अशुचि देह के राग में दुर्गति― अहो, इस अशुचि शरीर को सारभूत समझकर इसमें रमा जा रहा हो तो इसका फल क्या होगा? जो अधिक से अधिक दुर्गति होगी वह फल है। एक कवि ने लिखा है कि जैसे सूकर मलघर में घुसकर मल को खाकर अपने को सुखी मानता है ऐसे ही यह मोही जीव मलमूत्र चर्ममय इस शरीर में आसक्त होकर इस शरीर में अनुराग करके, अपने को उपभोक्ता मानकर व्यर्थ ही सुखी होने की कल्पना करता है। मिला क्या? कुछ नहीं। किया क्या? केवल अपने में कल्पनाएँ, फिर रहा क्या? कुछ नहीं। सूना का सूना, केवल एक वही का वही और यह सब हो गया व्यर्थ। यही है दुर्गति का प्रवेश। परभव में तो दुर्गति है ही, उसकी तो इस ही भव में दुर्गति हो जाती है।
सत्य संपदा― संपदा है बुद्धि का स्वच्छ बना रहना। इससे बढ़कर कोई विभूति नहीं है, कोई धन नहीं है, कोई अकल नहीं है। कहीं-कहीं देखा होगा लाखों का धन है और कपड़े भी पहिनने का सहूर नहीं है। लार भी टपकती है, अक्ल भी नहीं है, पागल से बने हैं। जिनको बुद्धि स्वच्छ न होने से कोर्इ सुख नहीं है उन्हें तो दु:खी ही माना जायेगा। जिसकी बुद्धि स्वच्छ है, पर के राग में बढ़े नहीं, किसी से द्वेष करे नहीं, सर्व जीवों के हित की कामना करे ऐसा पुरुष ही वास्तव में प्रसन्न है, आनंदित है। जाना किसी के साथ कुछ नहीं है, लेकिन जिसने यहाँ गड़बड़ मचा दी है वह यहाँ भी कुफल भोगता है और परभव में भी कुफल भोगता है। किसी भी अनित्य समागम में मोह करना इस जीव को शांति के उपयोग की बात नहीं है।
शांति का आधार आशय की स्वच्छता― शांति के उपाय में सर्वप्रथम सम्यक्त्व को उपाय कहा है। जब तक आशय विशुद्ध न बने तब तक इसमें शांति की कला चमक ही नहीं सकती है। जैसे गंदी और अटपटी फोकसी भींत पर चित्र की कला नहीं बनायी जा सकती है साफ पुष्ट स्वच्छ भींत पर ही चित्र की कला शोभा देगी, ऐसे ही गंदे मलिन विषयवासना से वासित हृदय में शांति की कला कहाँ से आयेगी? शांति तो स्वच्छ आशय के होने पर ही बनती है। इस स्वच्छता के लिये यही तो आवश्यक है कि निज को निज पर को पर जान। अपने आपके स्वरूप का परिचय पाये बिना शांति कहाँ से मिलेगी; समस्त पर से निराले केवल ज्ञानमात्र अपने को देखो। दिन रात भी संकट आता हो और उसमें किसी भी क्षण इस सहजस्वरूप का स्पर्श हो जाये तो भी यह इस कल्याणसंसार में जीवित रहता हुआ समझिये। सर्व समागम पर हैं, विनाशीक हैं। इनसे न्यारे अविनाशी ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व को निरखो, उसकी ही दृढ़ प्रतीति बनावो तो इससे शांति अवश्य प्राप्त होगी।