वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 123
From जैनकोष
एवमभिगम्म जीवं अण्णेहिं वि पज्जयेहिं बहुगेहिं ।
अभिगच्छदु अज्जीवं णाणंतरिदेहि लिगेहिं ।। 123 ।।
अजीव पदार्थ के वर्णन की भूमिका―इस प्रकार अन्य भी अनेक पर्यायों से आत्मा को जानकर ज्ञान से भिन्न जो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदिक भाव हैं उन चिह्नों से अजीव की पहिचान करो । यह गाथा जीव पदार्थ के वर्णन और अजीव पदार्थ के वर्णन की संधिरूप है । जैसे कुछ ऊपर चिह्न बताये गए हैं कि इन-इन परिणमनों को देखकर हम समझे कि यह जीव है इसी प्रकार व्यवहारनय से इन सब परिणमनों से जो कर्म ग्रंथों में बताये गए हैं―जीवस्थान गुणस्थान, मार्गणास्थान इनके भेद प्रभेद उन सब प्रसंगों के द्वारा भी उन विचित्र विकल्पों से भी तुम जीवतत्त्व की पहिचान कर लो ।
जीव का व्यवहारनय से परिचय―ये गुणस्थान अजीव में नहीं होते, जीव में ही होते हैं । जीव के ही सम्यक्त्व गुण और चारित्रगुण की अवस्था जो होती है वे गुणस्थान हैं, ये जीव के परिणमन हैं । जीव समास यद्यपि इन जीव समासों में जो एक दृश्य अंश है वह पुद्गल है लेकिन यह सब कुछ होना जीव के संबंध बिना नहीं बनता । इस कारण जीवसमास से भी हमें जीव का परिचय मिलता है । गतिमार्गणा नरक, तिर्यंच, मनुष्य आदिक गतियाँ ये सब जीव की ही तो खोज कराती हैं । यह जीव है, यह एकेंद्रिय है, यह दोइंद्रिय है, यों इंद्रियों के द्वारा भी जीव की खोज बनती है । यह सब वर्णन व्यवहारनय का है । इन गुणस्थान आदिक के द्वारा जीव का परिचय कराना व्यवहारनय से है ।
व्यवहारनय से जीव का विविध परिचय―निश्चयनय तो केवल एक सहजस्वभाव को दिखाया करता है । यह नाना परिणतियां बताने वाला व्यवहारनय ही है । ये 6 प्रकार के काय हैं―पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय । यद्यपि ये सब शरीर के पिंड हैं, रूप, रस, गंध, स्पर्श इनमें हैं, इस कारण ये दृश्यमान अजीव हैं । किंतु ऐसा काय, आकार जीव के संबंध के बिना नहीं बन सकता । तो उन कायों का निर्णय करते हुए जीव का परिचय होता है, और भीतर चले तो आत्मा के प्रदेशों का परिस्पंद निरखा । उन प्रदेश परिस्पंदों को निरखकर हम जीव को ही ढूँढ रहे हैं । यह मनोयोग है, यह वचनयोग है, यह काययोग हैं―यों निरख-निरखकर हम उस जीव का ही परिचय पा रहे हैं । यों हो और भीतरी अनुभव पर दृष्टि डालते हैं तो वेद कषायरूप से हमें जीव का परिचय मिलता है । तो इन वर्गणावों से हमने व्यवहारनय से जीव ही जाना । और भीतर चले तो ज्ञान द्वारा ज्ञान की चेष्टावों से हमें इस ज्ञाता का ही परिचय मिला । यह मतिज्ञानी है, यह श्रुतज्ञानी है, इस प्रकार ज्ञान के उपाय से हमने जीव को ही खोजा । संयम के उपाय से भी तो हम जीव की पहिचान करते हैं कि यह जीव संयमी है, यह असंयमी है । इस प्रकार संयमासंयम के भेद बताकर हम जीव का ही तो परिचय पाते हैं । यों ही दर्शन, लेश्या इन सब साधनों के द्वारा हम जीव का परिचय पाते हैं, पर यह सब परिचय व्यवहारनय से है।
निश्चयनय से जीवपरिचय की पद्धति―निश्चयनय से तो दो प्रकार की पर्यायों में परिचय मिलेगा―अशुद्ध पर्यायों में, शुद्ध पर्यायों में । मोह रागद्वेष के परिणमन से यह विश्वरूपता, नानारूपता उत्पन्न हुई है । अशुद्ध निश्चयनय से हम इन अशुद्ध पर्यायों से जीव का परिचय पाते हैं । और जब ये अशुद्ध परिणतियां नहीं रहती हैं तब शुद्ध निश्चयनय से केवलज्ञानादिक शुद्ध परिणमनों से हम जीव का परिचय पाते हैं । जैसे केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व में गतिरहित, इंद्रियरहित―इन भेदों से हम शुद्ध जीव का परिचय पाते हैं ।
अजीवपरिचय―इस प्रकार जीव का परिचय प्राप्त करके अब उस अजीव का भी परिचय पावो जिस अजीव के संबंध से जिस अजीव में चित्त फंसाकर, जिस अजीव के प्रेमी बन-बन-कर हमने अब तक नाना क्लेश भोगे हैं । एक अजीव का प्रेम न होता तो इस जीव को कष्ट क्या था? अब भी जितना कष्ट है वह अजीव तत्व के प्रेम का कष्ट है । जिसमें चैतन्यस्वभाव नहीं है, जो ज्ञान से अत्यंत जुदा है, जो अनेक लिंगों से, मायाजाल प्रपंचों से सहित है, आकार-प्रकार, रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि के लिंगों के द्वारा जीव को पहिचानना, सभी अजीवों को पहिचानना । कोई अजीव जीव से संबद्ध है, कोई अजीव जीव से संबद्ध नहीं है, मगर उन सभी अजीवों को चाहे वह जीव से संबद्ध हो, चाहे जीव से असंबद्ध हो उनसे भेदबुद्धि बनाओ । भेद-बुद्धि बनाने के लिए अजीव को भी जानना होगा ।
अजीव से पृथक् होने के उपाय का अन्वेषण―जीव और अजीव जब अनादिकाल से एक संबंध में चले आ रहे हैं, एक क्षेत्रावगाही हो रहें हैं, निमित्तनैमित्तिक बंधन चल रहा है तो इस संकट को हम दूर तब कर पायेंगे अर्थात् इस अजीव तत्त्व को हम अपने स्वरूप से जुदा तब ही कर पायेंगे जब हम पहिले समझ तो ले कि ये जुदे हो सकते हैं । ये अजीव मुझ जीवस्वरूप से जुदे हो सकते हैं, यह बात तब समझी जा सकती है जब वर्तमान में ही हमें ऐसा परिचय मिल जाय कि ये तो अब भी न्यारे ही हैं । इस अजीव का स्वरूप इस अजीव में है, इस जीव का स्वरूप इस जीव में है । जीव में अजीव त्रिकाल नहीं आता, अजीव में जीव त्रिकाल नहीं आता, इस प्रकार का पार्थक्य हमें वर्तमान में भी समझ में आये तो यह बात प्रतीति में बन जायगी कि ये किसी दिन एकदम जुदे-जुदे हो सकते हैं । उस कैवल्यस्वरूप को पाने के लिए हमें अभी से इन पदार्थों से भेदविज्ञान करके 'यह मैं आत्मा केवल निज चैतन्यस्वरूपमात्र हूं' ऐसी प्रतीति करनी चाहिए । इस प्रकार इस गाथा तक जीवपदार्थ का व्याख्यान समाप्त हुआ ।