वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 4-23
From जैनकोष
प्राग्ग्रैवेयकेभ्य: कल्पा: ।। 4-23 ।।
कल्पवासी देवों का परिचय―ग्रैवेयकों से पहले कल्प होते हैं, ग्रैवेयकों से पहले कहाँ तक लेना है इसके अर्थ के लिये सौधर्म आदिक का ग्रहण करना चाहिये । यह प्रकरण चूंकि वैमानिक देवों का है इसलिये वैमानिकों में जो सबसे नीचे जगह पर हों उन्हें लेना । तो सौधर्म आदिक तक कल्पवासी होते हैं । यहाँ यह शंका हो सकती है कि जब सूत्र में सौधर्म आदिक को ग्रहण कर रहे हो तो इस सूत्र को सौधर्म ऐशान इत्यादि सूत्र के बाद ही तुरंत कह देना चाहिये था । तब बिल्कुल स्पष्ट अर्थ हो जाता कि ग्रैवेयकों से पहले सौधर्म आदिक कल्प कहलाते हैं । इस शंका का समाधान यह है कि यदि इस सूत्र को उस बड़े सूत्र के अनुसार ही बोल देते तो स्थिति प्रभाव आदिक जो 3 सूत्र कहे गये हैं उनका व्यवधान बन जाता । फिर उन सूत्रों से यह अर्थ न जाहिर होता कि ऊपर-ऊपर सर्वार्थसिद्धि पर्यंत ये बातें बढ़-बढ़ होती जाती या ये बातें कम-कम होती जाती । अत: उस बड़े सूत्र के बाद इस सूत्र को नहीं कहा गया है किंतु इस सूत्र का व्यवधान हो जाने पर स्थिति प्रभाव आदिक का अर्थ सिर्फ कल्पवासियों में ही लगेगा याने स्थिति ऊपर-ऊपर के देवों में बढ़ती हुई चली गई है । तो सिर्फ 16 स्वर्गों तक ही अर्थ लगेगा । उसके बाद इस सूत्र का अर्थ नहीं लगता क्योंकि स्थिति आदिक सूत्रों से पहले यह कल्पा: वाला सूत्र रख दिया । तो कल्पवासियों में ही तो अर्थ घटता इस कारण इस 23वें सत्र को वहाँ न कहकर यहाँ ही कहना उपयुक्त होता है । अब इस सूत्र का अर्थ हुआ कि ग्रैवेयकों से पहले सौधर्मादिक स्वर्ग तक अर्थात् 16वें स्वर्ग से लेकर पहले स्वर्ग तक के ये सब देव कल्प कहलाते हैं अथवा इन स्थानों को कल्प कहते हैं । इन कल्पों में जो रहे उन्हें कल्पवासी कहते हैं ।
कल्पातीत देवों का परिचय―अब यहाँ यह जिज्ञासा हो जाती है कि ग्रैवेयकों से पहले तो कल्पवासी कहलाते हैं तो फिर इसके अलावा कौन क्या कहलाते हैं । तो उत्तर उसका यह है कि वे सब कल्पातीत कहलाते हैं । यह निर्णय अपने आप ही सिद्ध हो जाता है । अब यहाँ एक आशंका यह रह जाती है कि सूत्र में तो यह बताया है कि ग्रैवेयकों से पहले कल्प कहलाता है । तो पहले शब्द से तो भवनवासी तक का अर्थ लेना चाहिये, क्योंकि देव चार निकाय वाले कहे गये हैं, भवनवासी व्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक । वैमानिकों में 16 स्वर्ग तक एक प्रकार का ढंग है और उससे ऊपर-ऊपर अहिमिंद्र ही होते हैं । तो ग्रैवेयकों से पहले कहां तक लेते चले जाना चाहिये, सो यह अवधि भवनवासी तक होना चाहिये । सो समाधान उसका यह है कि यह प्रकरण वैमानिकों का चल रहा है इसलिये जो भी ग्रहण करना है वह सब वैमानिकों तक ही ग्रहण करना है । अब यहाँ कोई यह जिज्ञासा कर सकता है कि अगर भवनवासी व्यंतर और ज्योतिषी कल्पवासियों में नहीं आते तो फिर इनको कल्पातीत कहना चाहिये, याने कल्पों से अलग अतीत हो गये । इसका उत्तर यह है कि पहले सूत्र आया था उपर्युपरि, जिसका अर्थ है कि ये सब ऊपर-ऊपर रचनायें हैं । तो जब कल्पातीतों को ग्रैवेयकों से ऊपर देखते हैं तो ग्रेवयक विमानों से ऊपर अनुदिश और अनुत्तर तक ही तो आयेंगे । भवनवासी तो सौधर्म स्वर्ग से भी बहुत नीचे है, और इनका निवास तो अधोलोक में है । ज्योतिषियों का मध्यलोक में है । तो कल्पातीत केवल ग्रैवेयक अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देव ही होते हैं ।