वर्णीजी-प्रवचन:योगिभक्ति - श्लोक 13
From जैनकोष
जलमल्ललित्तगत्ते वंदे कम्ममलकलुसपरिसुद्धे।
दीहणमसुलो मे तवसिरिभरिये णमंसामि।।13।।
देहविरक्त योगियों का अभिवंदन- ऐसे योगीश्वरों को नमस्कार हो जिनका दर्शन करने से ऐसा भाव बनता कि जिन भावों के कारण भव-भव के पातक कट जाते हैं। भला इस लोक में किन जीवों का सहारा लिया जाय कि पाप कट सकें। जो खुद पाप करते हैं, जो खुद मोह रागद्वेष में लिप्त हैं उनका सहारा लेने से वह भाव नहीं बन सकता जिसका सहारा लेने से पाप कटा करते हैं। माना कोई इष्ट पुत्र मित्र हैं, उनका सहारा तकने से, उनमें स्नेह रखने से, उनकी सेवा से, उनके सहवास से इस जीव को शांति कहाँ प्राप्त होती है। अशांति ही बढ़ती है? राग में किसी अशांति के रूप को ही अज्ञानीजन शांति मान लेते हैं। राग में क्षोभ ही होता है और उस क्षोभ में ये विषय साधन वाला क्षोभ है इस कारण से शांति माना है। वस्तुत: शांति वहाँ है जहाँ रंचमात्र भी क्षोभ नहीं है। तो जो क्षोभ के पुन्ज हैं, विषयकषाय के जो निधान हैं, ऐसे स्त्री पुत्र मित्रों का संपर्क रखने से, उनका सहारा तकने से इस आत्मा को क्या लाभ मिलेगा? ऐसे योगीश्वरों की शरण में कोई जाय तो वहां लाभ मिलेगा। योगी जलमल आदिक से लिप्त हैं उनका शरीर तो ऊपर से मलिन किंतु रत्नत्रयधारी आत्मा के रहने के कारण पवित्र है, ऐसे पवित्र आत्मा के गुणों पर दृष्टि रखकर जो उनकी सेवा उपासना करता है उसे शांति प्राप्त हो सकती है।
शांति और अशांति की निजभवाधीनता- भैया ! शांति और अशांति के लिए केवल एक दिल की ही तो गति करना है। विषयकषायों की ओर दिल भेजा जाय तो अशांति हो गई, और नहीं भेजता तो क्या गुजारा नहीं चलता? चलता है। जैसे कल्पना में समझ लो, किसी इष्टरूप के देखने में समय गुजरा, आकर्षण किया, विकल्प मचाये, दीनता बनी, पराधीनता बनी और ऐसा योग न जुडा़ होता, किसी योगी के निकट बैठे होते, और अपना मन एक विशुद्ध ज्ञान में रहता तो क्या समय न निकल सकता था? अरे उससे और अच्छा गुजारा होता है। लेकिन मोह में जीव यह मानते कि ऐसा विषय मिलाये बिना मेरा गुजारा ही नहीं। इतिहासों में या आजकल भी जो कुछ लोग ऐसे हैं कि जिन्होंने यह ठान लिया कि अमुक कामिनी के बिना मेरा गुजारा ही नहीं। जैसे किसी का चित्रपट मिला तो वह यह ठान लेता कि मेरा तो पाणिग्रहण इससे ही हो और अन्नजल छोड़ देता है और वह समझता है कि ऐसा किए बिना प्राण टिक ही नहीं सकते। और कल्पना करो कि यदि आपका उस इष्ट से संयोग न जुडा़ होता तो क्या ठीक-ठीक समय न गुजरता? तो ऐसे योगियों के निकट बैठने से दिल बदलता है, उपयोग शुद्धतत्त्व की ओर रहता है तो उनका समय बहुत अच्छा निकलता है। ऐसे योगीश्वरों का बाहर में शरीर देखो तो अत्यंत मलिन शरीर है, फिर भी वे पवित्र आत्मतत्त्व में अपना उपयोग बसाये रहते हैं। धन्य है उन योगीश्वरों को जिनके भीतर ही भीतर ज्ञान बड़ी पैनी धार से चलकर ऐसा प्रवेश कर गया कि बस निजज्ञानप्रकाश ही समा गया है, वही जिन्हें प्रिय लगता है और प्रकट यह सब असारता जान ली गई है, ऐसे योगीश्वरों की उपासना से शांति प्राप्त होती है।
प्रक्षालितकर्मकलंक योगियों का अभिवंदन- यहां जिनको कुछ बताना चाहते हैं वे सब यह शरीर हैं, असार हैं, मिट जाने वाले हैं और जो सही चीज है, परमार्थ आत्मा है उसे यहां कोई जानता नहीं। किसको क्या बतायें, और परमार्थ जो स्वरूप है उसे कोई आत्मा जान ले, मान ले तो अंतस्तत्त्व को मानकर फिर वे किसी को कुछ बताने का भाव भी नहीं कर सकते, विकल्प भी उनके नहीं होता। अहो, यह काम न किया इस जीव ने और तो सारे असार काम कर डाले, धन जोड़ लिया तो क्या है, आखिर मरण तो होगा ही, फिर क्या रहेगा अपने पास सो तो बतावो। सबसे बड़ी विपत्ति है यह अज्ञान। बाह्य की ओर आकर्षण किया। जिसे इज्जत समझा है लोगों ने उस इज्जत को तो धूल में मिला देना होगा, तब अपना कल्याण बन सकता है। उसमें रखा क्या है। किसी ने कुछ समझा, किसी ने कुछ जाना तो क्या वह प्रभु है? अरे जिन्हें हम अपने विषय में कुछ समझाना चाहते वे तो हमसे भी अधिक विषयकषायों से मलिन जीव हैं। उनसे मेरे आत्मा का क्या संपर्क? तो जो योगीश्वर होते हैं वे इन कर्मकलंकों से रहित होते हैं। कलंक यही तो हैं रागद्वेष आदिक विकल्प। आत्मा में कलंक लदा है रागद्वेष, कल्पना, इच्छा, चिंता चाह आदिक का। इस कलंक में रहते हुए आत्मा को चैन नहीं है। अब यह निमित्तनैमित्तिक संबंध की बात है कि ऐसे रागद्वेषमोह का कलंक छाया हो आत्मा पर तो कामार्णवर्गणा कर्मरूप बनती है और उनके उदय में फिर ऐसा ही रागादिक छाता है। हम लोग उन कर्मों को तो गाली देते हैं जिनकी शकल सूरत नहीं मालूम, केवल पुस्तकों में पढ़ रखा है- कार्माणवर्गणायें होती हैं अथवा युक्ति अनुमान से निर्णय बना लिया है ऐसे उन कर्मों को तो गाली देते हैं, पर यह नहीं निरख रहे कि जो तन्मय बनकर तत्काल में तादात्म्यरूप से रहकर मेरे को बरबाद कर रहे हैं, वह हैं असल में कर्मकलंक। जिस उपयोग में रागद्वेषमोहभाव छाया हुआ होता है उस उपयोग में कोई शुद्धवृत्ति तो नहीं ठहर सकती। साक्षात् दृश्यमान है इतना भी संभव नहीं है, इन विषयकषाय के विकल्पों के निकट थोड़ा सा ज्ञानप्रकाश यह आत्मा बनाये रहे। शत्रु शत्रु अगर लड़ते हैं तो दो शत्रुवों की सत्ता तो है पास में, मगर ये विभाव ऐसे शत्रु हैं कि विषयभाव है तब शुद्धभाव नहीं। और जब शुद्धभाव है तब विषयभाव नहीं। हां, अंशों की दृष्टि से तो यह निर्णय बनाया जा सकता है कि कितने अंशों में कषाय है, कितने अंशों में विषयकषायों की मलिनता है और कितने अंशों में शुद्धता है, पर विषयभाव और शुद्धभाव का साक्षात् विरोध है, ऐसे कर्मकलंकों को जिन्होंने दूर किया है ऐसे योगीश्वरों को नमस्कार करता हूं।
वृद्धकेशश्मश्रूनख व तप:श्रीभरित योगियों का अभिवंदन- योगी ऐसे परमविरक्त हैं कि जिनके नख बाल आदिक बहुत बड़े हो गए हैं, पहिले छंद में बताया था कि जिन योगियों के केश बड़े हो गए हैं, वे ऐसे ध्यान में रत रहे कि 4-6 माह तक केशलोंच न किया। केश मूँछ दाढ़ी आदिक बढ़ गए तो उनके उन बढे़ हुए बालों की महिमा नहीं गायी गई, किंतु उनका ऐसा ज्ञानस्वभाव में उपयोग जुडा़ कि जिस ज्ञानयोग में उनको बाहर में कुछ भी सुध बुध नहीं है, नख बढे़ हैं, केश बढे़ हैं, उनको सुनकर हम भीतर की स्वच्छता पर दृष्टि डालते हैं ऐसे शुद्ध भाव वाले योगीश्वरों को मैं नमस्कार करता हूं, जो तपश्री से भारित हैं- तप है एक लक्ष्मी। लक्ष्मी अगर प्रसन्न हो जाय अर्थात् निर्मल हो जाय तो कहते हैं कि वह समृद्धिशाली बन जाता है। लक्ष्मी प्रसन्न हो जाय तो आत्मा को सारे सुख मिलेंगे यह बात बिल्कुल सही है मगर समझें तो सही कि इसका अर्थ क्या है? लक्ष्मी का अर्थ क्या है? जो आत्मा का चिन्ह है, लक्षण है उसे लक्ष्मी कहते हैं। ज्ञानलक्षण को लक्ष्मी कहते हैं। ज्ञानलक्ष्मी जिनकी प्रसन्न है, जिनका ज्ञान निर्मल हो गया है। जिनकी अंतरंगलक्ष्मी प्रसन्न हो गई है उनको सर्वसमृद्धियाँ मिल गई। दु:ख आकुलता, चिंता, विकल्प आदिक यदि होते हों तो चाहे किसी के अरबों की भी संपत्ति हो, पर उसे समृद्ध नहीं कह सकते। खुद तो वह बड़ा दु:खी है। जो ज्ञानादिक लक्ष्मी से चढ़े बढे़ हुए हैं ऐसे योगीश्वरों को मैं नमस्कार करता हूं।