वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 31
From जैनकोष
पत्तविणा दाणं य सुपुत्तविणा बहुधणं महाखेत्तं।
चित्तविणा वयगुणचारित्तं णिक्कारणं जाणे।।31।।
पात्र के बिना दान की व भाव के बिना व्रतादि की निष्कारकता―पात्र के बिना दान देना भी निरर्थक है। अनेक पुरुषों का दान प्रायः देखा ही जाता है कि कोई खेलकूद की बात, तमाशे की बात या कोई अन्य ऐसी ही फिजूल की बातों में चूँकि मन रमता है उससे अपने को सफल मानता है तो वहाँ दानवृत्ति होती है पर आचार्य देव कहते हैं कि सद̖क्षेत्र में, सुपात्र में, योग्य कार्य में जो दान किया जाता है वही सफल दान कहलाता है, तो जैसे सुपात्र के बिना बहुत धन और बहुत खेती आदि होना निष्फल है ऐसे ही समझिये कि पात्र के बिना दान निष्कारण है। जिसके सुपात्र नहीं है और बहुत-बहुत धन कमाने की चिंता में फिकर में रहता है तो और लोग समझते हैं कि यह किसलिए इस तृष्णा में बढ़ रहा है, इसे करना क्या है। तो जैसे दृष्टांत लिया है कि सुपात्र बिना धान खेती आदि का संग्रह निष्कारण है ऐसे ही पात्र के बिना दान भी एक निष्कारण है तथा भाव के बिना व्रत, गुण, चारित्र ये भी निष्फल समझियेगा। भाव तो नहीं है और चूँकि व्रत का एक रिवाज है, रूढ़ि है, करते जा रहे हैं और उसमें ही एक बड़ी महिमा प्रशंसा जानी जाती है तो व्रत करना, वह व्रत बिना भाव का है याने दुर्भाव का है। मोक्ष के लिए जैसा भाव होना चाहिए उस तरह के भाव से व्रत नहीं करता है तो ऐसा व्रत निष्फल है, इसी प्रकार गुण भाव के बिना कलायें, अन्य क्रियायें और चारित्र, तपश्चरण ये सब भाव के बिना व्यर्थ हैं, कर ली पर पता नहीं है कि इसका उद्देश्य क्या है। मूल चीज क्या है? भाव के बिना परिश्रम की व्यर्थता का एक दृष्टांत पूर्वक समर्थन―एक ऐसा कथानक है कि कोई 4-5 बजाज अपने गाँव से अपने-अपने घोड़े पर बैठकर किसी शहर से कपड़ा खरीदने चले। रास्ता लंबा था, रास्ते में उनको एक जगह रुकना पड़ा सो वे एक पेड़ के नीचे रात्रि भर विश्राम करने के लिए ठहर गए। ठंड के दिन थे। सो घोड़े को बाँध दिया एक तरफ और वे सब उस पेड़ के नीचे ठहर गए। अब ठंड काफी जोर की थी। ठंड तो किसी तरह से मिटाना ही था, रात्रि किसी तरह से काटना था। अब उन्होंने क्या उपाय किया कि पास से ही कुछ लकड़ियाँ बीन लाये, एक जगह उन्हें इकट्ठा किया, चकमक से आग जलाया और कुकडु आसन से बैठकर खूब तापा, अपनी ठंड मिटाया और सबेरा होते ही वे सब प्रस्थान कर गए। उनका वह सब दृश्य देख रहे थे उस पेड़ पर रहने वाले बंदर। उन सब बंदरों ने सलाह किया कि देखो अपन लोगों जैसे ही तो हाथ पैर उनके थे जो रात्रिभर इस पेड़ के नीचे रहकर अपनी ठंड मिटाकर यहाँ से प्रस्थान कर गए। अपन लोग भी क्यों न वैसा ही काम करें और अपनी ठंड मेटें। ठीक है, मंजूर हो गई वह बात। अब सभी बंदर दौड़े चारों ओर। लकड़ियाँ तोड़ तोड़कर लाये, एक जगह इकट्ठा किया और तापने बैठे पर ठंड न मिटी। एक बंदर बोला अरे इस तरह से ठंड कैसे मिटेगी? उन्होंने तो कोई लाल-लाल चीज इन लकड़ियों में डाली थी, जब तक वह न डालोगे तब तक ठंड कैसे मिट सकती?.... ठीक है। लो सभी बंदर इधर उधर दौड़े वहाँ उड़ रही थी लाल-लाल पटबीजनायें (जुगनू) उन्हें पकड़कर लाये और लकड़ियों में डाला, ताप ने बैठे फिर भी ठंड न मिटी, फिर एक बंदर बोला अरे इस तरह से ठंड कैसे मिटेगी? वे सब कुकडु आसन में बैठे थे तब ठंड मिटी थी। कुकडु आसन में बैठ गए सब बंदर फिर भी ठंड न मिटी। फिर एक बंदर बोला अरे इस तरह से ठंड न मिटेगी। उन्होंने लाल-लाल चीज लकड़ियों में गेर कर मुख से फूँका भी था। सो सभी बंदर मुख से फूँकने भी लगे फिर भी ठंड न मिटी। देखिये उन सभी उपायों को उन बंदरों ने कर लिया फिर भी अपनी ठंड न मेट सके। तो उसमें ठंड न मिटने का मूल कारण क्या था? मूल कारण यह था कि ठंड मेटने की जो मूल साधन अग्नि थी उसका उन्हें परिज्ञान न था। तो ऐसे ही समझ लो कि जब जानकारी ही नहीं कि आत्मा के कल्याण का हेतुभूत होता है अविकार सहज चैतन्य स्वरूप मात्र अपने आपका परिज्ञान करना, अनुभव करना, उस बात की जब कुछ जानकारी ही नहीं, आत्मा की कुछ सुध ही नहीं, और इस देह को ही आत्मा मानने के आदी हैं तो वे व्रत चारित्र एक देहात्म बुद्धि से ही किया करते हैं। उनका यह सब क्रिया चारित्र का पालन यह भाव के बिना है। तो भाव के बिना किए गए व्रत चारित्र आदि ये सारे श्रम निष्फल होते हैं। जैसा भाव होता है वैसा ही फल मिलता है, यह जानकर अपने भाव ऐसे उदार (उदात्त) बनाना चाहिए कि जिससे इस लोक में भी आनंद प्राप्त हो और भविष्य में भी आनंद प्राप्त हो।