वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 34
From जैनकोष
गयहत्थपायणासिय कण्णउरंगुल विहीणदिट्ठीए।
जो तिव्वदुक्खमूलो पूयादाणाइ दव्वहरो।।34।।
पूजा दानादि के द्रव्य को हरने वालों की शारीरिक दुर्दशा―पूजा दान आदि के द्रव्य को हरने वाला पुरुष ऐसे दुःखों का कारण बन जाता है जो लोक में असह्य होता है। हाथ, पैर, नाक, कान, छाती, अंगुली, दृष्टि इनसे हीन हो जाता है, तब उसे तीव्र दुःख होता है। यह सब जगत की जो रचना है वह भावों के आधीन है। कोई भी अलग से हम आपको दुःख नहीं दे रहा, किंतु जो जैसे परिणाम करता है उसका वैसा ही कर्मबंध होता, वैसा ही उदय होता, स्वयं दुःख पाता है। तो जो दुःखी जीव नजर आते हैं, जिन के अंग भंग हैं, दृष्टिहीन हैं, जन्मते ही या बचपन में ही दृष्टि नष्ट हो गई है, हाथ के अंग, पैर के अंग छिद गए हैं, ऐसी जो दुरूपता है, शरीर की अंग हीनता है यह सब पूजा दान आदिक के द्रव्य हरण का फल है। इस अवशेष धन हो चुराना, धर्म के नाम पर व्यवस्था करते हुए उसे हरना यह तीव्र दुःख का मूल है।