वर्णीजी-प्रवचन:समाधितंत्र - श्लोक 74
From जैनकोष
देहांतरगतेबीजं देहेऽस्मिन्नात्मभावना ।बीजं विदेहनिष्पत्तेरात्मन्येवात्मभावना॥74॥
अनात्मदर्शी और आत्मदर्शी का निवासविषयक अभिमत – पूर्व के श्र्लोक में यह बताया गया था कि जो आत्मदर्शी पुरुष हैं, जिन्हें आत्मतत्त्व का परिचय नहीं हुआ है – ऐसे पुरुष अपने निवास के संबंध में ऐसा भेद डालते हैं कि मैं गांव में रह रहा हूं या जंगल में रह रहा हूं, किंतु जिसने आत्मतत्त्व का मर्म समझा है, अनुभव किया है – ऐसे पुरुष के तो यही एक निश्चल धारणा है कि मेरा निवास तो इस विविक्त निजआत्मा में ही है । मैं अन्यत्र कहां रहता हूं ? जैसे यह पूछा जाए कि बताओ यह चौकी किस में है तो एकत्वदृष्टि रखने वाले पुरुष यों कहेंगे कि यह चौकी मंदिर में है, यह चौकी आकाश में है, परंतु परमार्थस्वरूप जानने वाले यह कहेंगे कि चौकी चौकी में है, न मंदिर में है, न आकाश में है । यद्यपि व्यवहार दृष्टि से यह चौकी मंदिर में है, आकाश में है, पर चौकी के ही स्वरूप को तो निरखकर यह उत्तर होगा कि चौकी चौकी में है, आकाश में नहीं हैं, आकाश में आकाश है ऐसे ही देह में रहकर भी अपने को पृथक समझो ।
सब द्रव्यों का एकत्र अवगाह – इस लोक में छहों द्रव्य प्रत्येक जगह हैं । कौन सा प्रदेश ऐसा है, जहां छहों द्रव्य न हों, कहीं कम हो तो कोई जगह बतावो लोकाकाश में । आकाश तो है ही और लोकाकाश में धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य तिल में तैल की तरह पूर्णरूप से व्यापक है । तो ये दो भी लोक में हैं । कालद्रव्य लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक एक अवस्थित है, इसलिए कालद्रव्य भी इस लोक में सर्वत्र है । चूंकि द्रव्य अनंत हैं और बताया गया है कि लोकाकाश में जीव ठसाठस भरे हैं, लोकाकाश में एक एक जगह पर अनंतजीव मिलते हैं । अब देखने में ऐसा आ रहा है कि देखो वहां टेबिल रखी है, यह भींत है, यह चौकी रखी है, बीच में तो कुछ भी पुद्गल नहीं है, किंतु जब जीवद्रव्य है सर्वत्र तो यहां एक एक जीव के साथ अनंतानंत तो कार्माणवर्गणाएँ लगी हैं और उनका सूक्ष्मशरीर भी है । कितने ही तो बादर शरीर भी ऐसे होते हैं, जो आंखो से नहीं दिख सकते, पर सूक्ष्मशरीर तो हैं ही । तब पुद्गल स्कंध भी बहुत हो गये । इसके अलावा और भी सूक्ष्म स्कंध ऐसे हैं जो आंखो से नहीं दिखते । कितने ही स्कंध तो कभी कभी रोशनी में दिख जाते हैं । जहां सूर्य की तीक्ष्ण किरणें आती हैं, सूर्य तक जो हमारी दृष्टि पहुंचती है, सो वहां स्कंध जो प्रकाशित हैं, उनकी लैन दिखने लगती है । यों इस इस लोक में छहों द्रव्य सर्वत्र भरे हुए हैं ।
एकत्र अवगाह होने पर भी प्रत्येक सत् की स्वरूपभिन्नता – यद्यपि लोक में सर्वत्र छहों जाति के पदार्थ हैं, फिर भी स्वरूप को देखो तो एक द्रव्य में दूसरा द्रव्य नहीं है । आकाश में आकाश है, आकाश में जीव नहीं है, पुद्गल नहीं है, धर्मादिक नहीं हैं । प्रत्येक द्रव्य अपने ही स्वरूप में है, पर के स्वरूप में नहीं हैं । जब इस आत्मदर्शी को ऐसा दिख जाये कि मेरा निवास मेरे स्वरूप में है, अन्यत्र नहीं है, इस वर्णन के पश्चात् थोड़ी यह जिज्ञासा होती है कि आत्मदर्शी की कैसी भावना रहती है और अनात्मदर्शी की कैसी भावना रहती है और इन सब भावनाओं के फल में इसकी किस प्रकार की परिस्थिति बनती है ? इस ही जिज्ञासा का समाधान इस वाले श्लोक में किया गया है ।
अनात्मदर्शी की परिस्थिति – इस शरीर में यह आत्मा मैं हूं, इस प्रकार की भावना हो तो यह अन्य अन्य देह की प्राप्ति के लिये बीजरूप हो जाता है । जैसे खेत में बीज डाले तो उसका नया अंकुर नया पौधा बन जाता है – ऐसे ही इस देह में यह आत्मा मैं हूं – ऐसी भावना की तो यह भी अन्य देह की प्राप्ति का कारण बन जाता है । यों कह लीजिए कि किसी को शरीर ही शरीर चाहिये तो उसका उपाय है कि इस देह में यह मैं आत्मा हूं, ऐसी वासना बनाता जाये । लौकिक जन तरसते हैं कि मेरा जन्म हो, अच्छा जन्म हो, देवगति में जन्म हो, राजा महाराजा के घर पर जन्म हो, जन्म जन्म तरसता है यह जीव । जन्म लेने का उपाय भी यही है कि देह में मैं आत्मा हूं, ऐसा मानते जाये । शरीर में आत्मबुद्धि करने से इसका तो ठेका नहीं लिया जा सकता है कि इस गति में जन्म होगा, किंतु इसका ठेका लिया जा सकता है कि यह जन्मता रहेगा, शरीर मिलते ही रहेंगे । इसमें रंच भी कसर नहीं है । जो देह में ‘यह मैं आत्मा हूं’ ऐसी भावना करता है, उसे अनात्मदर्शी कहते हैं । उसका फल है संसार में रुलता रहना और नये नये शरीर धारण करते रहना, संकट सहते रहना ।
आत्मदर्शी की परिस्थिति – जो आत्मदर्शी पुरुष होते हैं अर्थात् इस आत्मा में ही भावना करने वाले होते हैं । आत्मा को ही लक्ष्य करके यह मैं हूं, इस प्रकार की प्रतीति करने वाले जो पुरुष हैं, उनकी आत्मा में आत्मा की भावना रहती है । यही आत्म में आत्मभावना देहरहित होने का उपाय है, मुक्ति का उपाय है । नये नये शरीर मिलते रहें, उसका यह सुगम उपाय है कि इस देह में ‘यह मैं हूं, यह मैं हूं’ ऐसा मानता जाय तो देह से छुटकारे का उपाय है कि वे देह आत्मा को आत्मा मान लें ।
सृष्टि की सुगमता – लोक में किन्हीं किन्हीं मंतव्यों में ऐसी भी प्रसिद्धि है कि ईश्वर इस सृष्टि को करता है । उनसे पूछा जाए कि वह ईश्वर इस सारी सृष्टि को कहां करता है ? कैसे उसके हाथ पैर हैं ? कहां बैठता है ? तो उनका उत्तर यह होगा कि र्इश्वर इच्छ भर करता है और यह सारी सृष्टि यों ही हो जाती है । अब इसका अर्थ लगावो । ईश्वरस्वरूप किसका है ? सर्वज्ञता का जिसका स्वरूप है – ऐसे ये सभी आत्मा अंतरंग दृष्टि से ईश्वर हैं । अरे ये सब ईश्वर इच्छा ही भर तो करते हैं कि सारी सृष्टि अपने आप होती रहती है । हम आप जीवों से भिन्न कोई ईश्वर हो और वह इच्छा करे तो जो इच्छा करे, उसमें ही परिणमन होगा, उसे ही उसका फल मिलेगा । यहां हम आप जैसा परिणाम बनाते, जैसी इच्छा करते हैं, उसके अनुकूल हम आपको प्राप्ति होती रहती है, सृष्टि होती रहती है । इच्छा भर करने का काम है, फिर तो हमें कैसा देह मिलना है, कब तक रहना है, उस देह से कब बिछुड़ जाना है – ये सारी की सारी बातें स्वत: होती रहती हैं । तो अनेक देह मिलते रहें, नये-नये शरीरों की रचना होती रहे इन सबका कारण है देह में आत्मा की भावना कर लेना ।
इच्छामात्र की कला पर सांसारिक सृष्टि – जैसे बारातों में आगोनी होती है । आगोनी उसे कहते हैं जो आगे चले, उसमें जो अनार आदि घालते हैं उसमें जरा सी आग की बत्ती छुवा दी, इतना ही भर तो काम वह पुरुष करता है, इसके आगे उस अनार में वह और कुछ प्रेरणा नहीं करता है । अपने आप ही ऊँचे उठना, प्रकाशित होना, दगना सब कुछ हो जाता है । ऐसे ही इस देह में यह मैं आत्मा हूं इतनी भर बात मान लिया फिर अपने आप ही शरीर बन उठा, सारे दंदफंद लग गये, यह शरीर बन जायेगा, सारे दंदफंद हो जायेंगे । उसमें तुम्हें कुछ नहीं करना है तुम्हारी करतूत तो इतनी भर है कि अहंकार और ममकार कर लें, इतना भर काम किया । उन खोटी स्थितियों के प्रसंग में भी अब उसका निमित्त पाकर अपने आप ही यह सारा खिलवाड़ हो रहा है । अनात्मदर्शिता से यह सारा खिलवाड़ अपने आप हो जाता है। देह में आत्मभावना न करे, आत्मा में आत्मभावना करे तो शुद्ध आनंद मिलना, ज्ञानप्रकाश का बढ़ना, ज्ञानमय उपयोग रहना ये सारी भली बातें हो जाया करती हैं । इसके विपरीत भाव में तो सांसारिक सृष्टि ही हुआ करती है ।
विचित्र कला – यह शरीर जड़ है । शरीर के उत्पन्न होने में निमित्त है कर्मोदय । जीव जब विभाव परिणाम करता है तो उस काल में कर्मप्रकृति का बंध हो जाता है और उनमें प्रकृति, स्थिति, प्रदेश, अनुभाग ये चार चीजें हो जाती हैं । अब उनकी सत्ता पड़ी हुई है । जब किसी भी प्रकार वे उदय में आते हैं तो उनके अनुकूल सब रचना होने लगती है । यों यह शरीर कर्मोदयजन्य है । इसमें मेरी करतूत कला नहीं है । मेरी करतूत कला तो इस प्रसंग में इतनी मात्र है कि इच्छा कर लें । इच्छा भर की कि वे सारे काम होने लगते हैं । कैसा चमत्कार है इस जीव का ? प्रभुता तो इसकी निराली है ही । यह इतनी सामर्थ्य रखता है कि जब बिगड़ता है तो अपनी अद्भुत छटा दिखा देता है और जब संभलता है तो अपनी अद्भुत छटा दिखा देता है ।
बिगड़ने में कला का विस्तार – देखो अनंत ऐश्वर्य की सामर्थ्य वाला यह जीव जब बिगड़ता है तो इतनी तक भी छटा दिखा सकता है कि पेड़ बनकर पत्ती पत्ती में, फूलों में, फूलों के मध्य जो बाल के समान पतला मकरंद होता है उसके समान पतले डोरों जैसे में आत्मप्रदेशों में यह जीव फैल गया है और जड़ों से पानी का जो लेप आहार करते हैं उन सारे शरीरों में प्रवेश करा लेता है । यह आत्मा यह समयसार यह जीव चेतन जब बिगड़ता है तो बिगड़ने की भी निराली छटा दिख जाती है । कोई वैज्ञानिक बना तो ले विज्ञान से इन जड़ शरीरों को । यह तो सब इस प्रभु की छटा है । यह जीव जब बिगड़ता है तो यहां तक बिगड़ता है ।
संभालने में कला का विस्तार – भैया ! यह जीव जब संभलता है तब प्रतिक्षण एक अद्भुत आनंद का पान करते हुए अपने आपमें ज्ञानप्रकाश का विस्तार करता है जिसके प्रताप से भव-भव के बँधे हुए कर्म भी यों खिर जाते हैं । ऐसे आंतरिक अद्भुत सातिशय चैतन्यचमत्कार को चकचकायमान् करता है, संभलता है तो ऐसा अद्भुत संभालता है । संभालने का उपाय है आत्मा में आत्मा की भावना करना । इस जीव ने अब तक देह में आत्मभावना की है इसका ही फल है कि अब तक संसार में रुलता चला आ रहा है । शरीर में आत्मभावना करने के फल में अन्य शरीरों में भी अपनी रिश्तेदारी कुटुंबपना ये सब मानना पड़ा, पर तत्त्वत: देखो तो इस अपने आत्मा का जो अमूर्त निर्लेप है क्या है आत्मतत्त्व में ?
भ्रम में मान अपमान का भ्रम – जैसे भिखारी भिखारियों में भिखारियों की ही कोई बात सुनकर कोई भिखारी ऐसा समझता है कि मेरी शान धूल में मिल गयी, हम बरबाद हो गए । कोई तीसरा पुरुष ही यह जानता है कि यह भिखारी व्यर्थ ही ऐसी कल्पना बनाए है । क्या बिगड़ा इसका ? न कुछ सी बात है । ऐसे ही जहां मोही मोहियों का संबंध बना हुआ है ? वहां पर प्रत्येक मोही जीव जरा जरा सी बातों में अपना अपमान महसूस करता है, पर ज्ञानीपुरुष ही जानता है कि इसमें क्या अपमान हुआ है कुछ भी तो नहीं हुआ । दूसरे ने अपने कषाय के अनुकूल अपनी चेष्टा की इसमें किसी दूसरे का अपमान क्या ? दूसरी बात यह है कि कोई पुरुष किसी दूसरे का अपमान कर ही नहीं सकता । वह दूसरा अपमान मान ले तो अपमान हुआ और यों देखता रहे कि अमुक देखो कैसी अज्ञानभावना में चेष्टा कर रहा है । कैसी कषायभाव की अपनी प्रवृत्ति कर रहा है ? ऐसा ही ज्ञाता दृष्टा रहा तो उसका अपमान नहीं हुआ ।
कष्टों का कारण बर्हिमुखी वृत्ति – जो जीव देह में भोगों में आसक्त रहता है वह चिरकाल तक नये-नये शरीर धारण करता हुआ संसार में भटकता रहता है और अनंत कष्ट भोगता रहता है । मोह छोड़े बिना पूरा न पड़ेगा और मोह छोड़ने में कठिनाई क्या ? व्यर्थ का तो मोह है। आपके घर में आज हम पैदा नहीं हुए तो आप हमें गैर समझ रहे हैं और जो आज आपके घर में हैं वे आपके घर में न पैदा हुए होते, किसी दूसरे के घर में पैदा हुए होते तो आप उन्हें गैर समझ लेते । हैं दोनों ही गैर, जो घर में उत्पन्न हुए और जो किसी दूसरे के यहां उत्पन्न हुए । आपका तो यह देह भी नहीं है । आपका आत्मस्वरूप ही आपका है । पर ऐसे आत्मा के एकत्व की ओर दृष्टि नहीं हुई है और बर्हिमुख उपयोग वृत्ति हुई है तो कष्ट तो भोगना ही पड़ेगा । आज जिस पुरुष के विरोध में प्रोग्राम बन रहे हैं कभी उस पुरुष को अपना लें तो विरोध की भावना खत्म हो जायेंगी तब वह भी यह समझेगा कि यह तो मेरा है, इसे तो और सुख देना चाहिए वस्तुत: तो कौन किसका है ? कषाय के अनुकूल ही ये सब मेरे तेरे मानने की पद्धति है । जिस आत्मा के निजस्वरूप में ही आत्मतत्त्व की भावना है मैं तो यह ज्ञानमात्र अमूर्तिक आनंदमय चैतन्यतत्त्व हूं – ऐसी जिनकी दृष्टि हुई है उनको बाहर में क्लेश नहीं होता है । आत्मतत्त्व की भावना वाले संत कुछ निकट में ही कर्मबंधन से छूटकर मुक्ति को प्राप्त होते हैं । मुक्त अवस्था में, विदेह अवस्था में निराबाध अनंत सुख में मग्न रहते हैं ।
आत्मभावना की शिक्षा – इस श्लोक में बताया गया है कि शरीर मिलते रहने का कारण है शरीर में आत्मभावना करना । और शरीरों का मिलना बंद हो जाय, मैं शरीर से भी विविक्त केवल निज ज्ञानस्वरूप में रहूं तो उसका उपाय है आत्मा में आत्मा की भावना करना । जिसकी जैसी भावना होती है उसके अनुकूल उसे फल मिलता है । जिसकी भावना शरीर में आत्मा मानने की है उसको शरीर मिलते रहेंगे । जिनको शांति प्राप्त करने का प्रयोजन है उनको आत्मतत्त्व की भावना से ही काम बनेगा । इस श्लोक से हमें यह शिक्षा ग्रहण करनी है कि हमारे जीवन में मुख्य काम यह है कि मैं शरीर में या धन वैभव में अहंकार अथवा ममकार न करूँ । सरल वृत्ति से आनंद उमड़ता है और कठिन वृत्ति से अर्थात् मायाचार के परिणाम से कोई लौकिक सुख मिला तो वह भी विपदा है । इस कारण एक ही मात्र कर्तव्य है कि हम आत्मा में ‘यह मैं आत्मा हूं’ ऐसी अपनी दृढ़ भावना बनायें ।