ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 32 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
जह पउमरायरयणं खित्तं खीरे पहासयदि खीरं । (32)
तह देही देहत्थो सदेहमेत्तं पभासयदि ॥33॥
अर्थ:
जैसे दूध में पड़ा हुआ पद्म-राग-रत्न दूध को प्रकाशित करता है; उसी प्रकार देह में स्थित देही / संसारी जीव स्वदेह-मात्र प्रकाशित होता है ।
समय-व्याख्या:
एष देहमात्रत्वदृष्टांतोपन्यास: । तथैव हि पद᳭मरागरत्नं क्षीरे क्षिप्तं स्वतोऽव्यतिरिक्तप्रभास्कंधेन तद᳭व्याप्नोति क्षीरं, तथैव हि जीव: अनादिकषायमलीमसत्वमूले शरीरेऽवतिष्ठमान: स्वप्रदेशैस्तदभिव्याप्नोति शरीरम् । यथैव च तत्र क्षीरेऽग्निसंयोगादुद्वलमाने तस्य पद᳭मरागरत्नस्य प्रभास्कंध उद्वलते पुनर्निविशमाने विनिशते च, तथैव च तत्र शरीरे विशिष्टाहारादिवशादुत्सर्पति तस्य जीवस्य प्रदेशा: उत्सर्पन्ति पुनरपसर्पति अपसर्पन्ति च । यथैव च तत्पद्मरागरत्नमन्यत्र प्रभूतक्षीरे क्षिप्तं स्वप्रभास्कंधविस्तारेण तद् व्याप्नोति स्तोकक्षीरं, तथैव च जीवोऽन्यत्राणुशरीरेऽवतिष्ठमान: स्वप्रदेशोपसंहारेण तद् व्याप्नोत्यणुशरीरमिति ॥३२॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यह देह-प्रमाणपने के दृष्टान्त का कथन है (यहाँ जीव का देह-प्रमाणपना समझाने के लिए दृष्टान्त कहा है) ।
जिस प्रकार पद्मराग-रत्न दूध में डाला जाने पर अपने से अव्यतिरिक्त (अभिन्न) प्रभा-समूह द्वारा उस दूध में व्याप्त होता है, उसी प्रकार जीव अनादि-काल से कषाय द्वारा मलिनता होने के कारण शरीर में रहता हुआ स्व-प्रदेशों द्वारा उस शरीर में व्याप्त होता है । और जिस प्रकार अग्नि के संयोग से उस दूध में उफान आने पर उस पद्मराग-रत्न के प्रभा-समूह में उफान आता है (वह विस्तार से व्याप्त होता है) और दूध फिर बैठ जाने पर प्रभा-समूह भी बैठ जाता है, उसी प्रकार विशिष्ट आहारादि के वश उस शरीर में वृद्धि होने पर उस जीव के प्रदेश विस्तृत होते हैं और शरीर फिर सूख जाने पर प्रदेश भी संकुचित हो जाते हैं । पुनश्च, जिस प्रकार वह पद्मराग-रत्न दूसरे अधिक दूध में डाला जाने पर स्व-प्रभा-समूह के विस्तार द्वारा उस अधिक दूध में व्याप्त होता है, उसी प्रकार जीव दूसरे बड़े शरीर में स्थिति को प्राप्त होने पर स्व-प्रदेशों के विस्तार द्वारा उस बड़े शरीर में व्याप्त होता है । और जिस प्रकार वह पद्म-राग-रत्न दूसरे कम दूध में डालने पर स्व-प्रभा-समूह के संकोच द्वारा उस थोड़े दूध में व्याप्त होता है, उसी प्रकार जीव अन्य छोटे शरीर में स्थिति को प्राप्त होने पर स्व-प्रदेशों के संकोच द्वारा उस छोटे शरीर में व्याप्त होता है ॥३२॥