वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2037
From जैनकोष
विश्वनेत्रं जगद्वंद्यं योगिनाथं महेश्वरम् ।
ज्योतिर्मयमनाद्यनंतं त्रातारं भुवनेश्वरम् ।।2037।।
विश्वनेत्र जगद्वंद्य प्रभु की उपासना―संसार के समस्त क्लेशों से पार हो जाने वाले परमात्म प्रभु समस्त विश्व के नेत्र हैं अर्थात् यह जगत उनके स्वरूप के दर्शन से अपनी शिवयात्रा को कर लेता है अर्थात् अशांति से हटकर शांति के पद में पहुंच, जाता है, अतएव वह प्रभु समस्त जगत की आँख हैं । जैसे कोई अंधा पुरुष किसी बालक के साथ पैदल चले तो वह कहता है कि मेरी आँख तो यह बालक है, स्वयं इतना आसक्त है कि चल नहीं सकता । उसे जो दिशा बतलाने लगे वही उसका नेत्र है, इसी प्रकार यह विश्व जो अनेक संकटों से फंसा हुआ है इसकी इस असार बुद्धि को निखारने में कारण प्रभु की वाणी है । यदि वस्तुस्वरूप का निर्णय न हो पाता जो कि प्रभु की दिव्यध्वनि की परंपरा की देन है, तो निर्णय बिना ये प्राणी कहाँ अविनश्वर आनंदमय आत्मस्वभाव की ओर लग पाते । तो प्रभु विश्वनेत्र हैं और समस्त जगत के द्वारा वंदनीय हैं। तीनों लोक के प्राणी, वही हुआ जगत। उस समस्त जगत के द्वारा वंदनीय हैं । जब देव लोक के देवेंद्रों ने आकर प्रभु की वंदना की तो उसमें सारा देवलोक आ गया । जब मनुष्यों के इंद्र चक्रवर्तियों ने प्रभु की वंदना की तो उसमें सारा मनुष्यलोक आ गया, इसी प्रकार जब तिर्यंर्चों के इंद्र ने प्रभु की वंदना की तो उसमें सारे तिर्यन्च भी आ गए । जब अधोलोक के इंद्र भवनेंद्र व्यंतरेंद्रो ने वंदना की तो पातालवासी आ गये । यों तीनों लोकों के द्वारा ये प्रभु वंदनीय हैं । जैसे किसी देश में राष्ट्रपति का चुनाव जनता द्वारा नहीं किया जाता, किंतु जनता द्वारा भेजे गए जो सदस्य हैं वे राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं । तो उन सदस्यों द्वारा चुना हुआ राष्ट्रपति जनता द्वारा चुना हुआ माना जाता है, इसी प्रकार जब तीनों लोक के इंद्रों ने प्रभु की वंदना की तो उसमें तीनों लोको के समस्त प्राणी आ गए । तो ये प्रभु समस्त जगत के द्वारा वंदनीय हैं ।
योगिनाथ, महेश्वर प्रभु की उपासना―ये प्रभु योगियों के नाथ हैं, आत्मकल्याण के चाहने वाले लोग योगसाधना करते हैं और इस योग के अधिकारी योगी जनों के ये प्रभु आदर्श हैं । उनका ही ध्यान कर के उनके बताये हुए उस ज्ञानपथ पर चलकर, उस ज्ञानदृष्टि का आनंद पा पाकर ये योगी पुरुष आत्मकल्याण करते हैं । ये योगियों के नाथ है । समस्त ऋषियों में सबसे बड़े ऋषिनाथ अप्रकंप अद्भुत केवलज्ञानी को बताया गया है, सो उन ऋषियों के भी ये नाथ हैं, और लोक में ये महेश्वर हैं, महान ईश्वर हैं । जिसको अपने किसी काम के लिए दूसरे की अपेक्षा न करनी पड़ती हो वह ईश्वर कहलाता है । प्रभु का काम क्या? निरंतर विशुद्ध ज्ञानरूप परिणमन और निराकुलता रूप परम आनंद का स्वाद लेते रहना । बस यही काम एक सर्वोत्कृष्ट काम है । तो उस कार्य के लिए प्रभु को किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं करनी पड़ती है । सांसारिक सुख तो कर्माधीन हैं, विनाशीक सत् हैं, इनके बीच में तो अनेक दुःख भरे पड़े हुए हैं और ये दुःख के मूल हैं, पाप के कारण हैं । ऐसे इन सांसारिक सुखों से क्या बड़प्पन है? प्रभु का आनंद कैसा है? जिसमें कोई आकुलता नहीं, कोई क्षोभ नहीं, और परम आल्हादमय है, ऐसे आनंद को प्रभु ने अपने ही द्वारा अपने में, अपने से, अपने लिए और अपने ही उस अभिन्न परिणमन से किया, उसमें किसी पर की अपेक्षा नहीं है, अतएव ये प्रभु महेश्वर हैं ज्योतिर्मय हैं ।
अनाद्यनंतत्व की प्रभु उपासना―देखिये हम प्रभु को किस शकल में निरखें जो हमें प्रभु के दर्शन हों? हम हाथ पैर के रूप में देखते हैं तो प्रभु के दर्शन नहीं होते । समवशरण में भी जो लोग प्रभु की हाथ पैर मुद्रा को देखते हैं वे प्रभु के दर्शन को नहीं पहुंचते हैं । वहाँ पर जो ज्ञानज्योतिर्मय रूप से उनका चिंतन करता है वही प्रभुदर्शन करता है । वह प्रभु केवलज्ञानपुंज है, विशुद्ध आत्मा है, ज्ञानज्योतिर्मय है । प्रभु अनादि हैं । न उन प्रभु की कोई आदि है और न अंत है । यहाँ पर तो जैसे किसी से झगड़ा शुरू हो गया तो कहते कि देखो अभी झगड़े की आदि थी, अब झगड़े का अंत हो गया । ऐसे ही यहाँ की सभी बातों में आदि बताते हैं और अंत बताते हैं, पर प्रभु का जो परिणमन है उसकी हम आदि क्या बतावें और अंत क्या बतावें? यद्यपि हम आदि बता सकते हैं कि जब से कर्मक्षय हुए हैं प्रभु मुक्त हुए हैं तब से उनके आनंद की आदि है किंतु यहाँ तो बहुत लंबा बताया और जो अनंतकाल पहिले सिद्ध हुए हैं अब से उनकी आदि की कल्पना कौन, कर सकता है? यों भी वे आदि अंत रहित हैं और परंपरा दृष्टि से देखो तो यह प्रभुता अनादि से है और अनंतकाल तक है । पर जो उनका वर्तमान विशुद्ध परिणमन है उस परिणमन पर दृष्टि दे तो वहाँ क्या आदि अंत की कल्पना है? जो चीज एक समान है उसमें हम कहाँ से आदि और कहाँ अंत खोजें? जैसे एक गोल शून्य है 0 उसमें कहाँ तो आदि है और कहाँ अंत है? इसी प्रकार जो वर्तमान परिणमन विशुद्ध चलता है प्रभु के, हम उसमें आदि क्या खोजें? आदि तो नये काम का खोजा जाता है । ये प्रभु अनादि अनंत हैं और परंपरा से अनादि अनंत हैं ।
विश्वरक्षक प्रभु की उपासना―ये प्रभु सबके रक्षक हैं । जब किसी के कोई चिंता शोक, संकट आदि होते हैं तो वह प्रभु के निकट पहुंचता है और प्रभु की बिनती स्तवन कर के वह अपने बोझ को कम करता है और वहाँ शांति प्राप्त होती है, पापरस घटता है पुण्यरस की वृद्धि होती है, रक्षा होती है । एक मनुष्य अपने घर में प्रभु की मूर्ति विराजमान कर रोज उपासना, आरती किया करता था । यों उसके बीस वर्ष गुजर गए । वह बड़ा धनाढ्य भी हो गया । एक बार चार चोरों ने सोचा कि उसका धन लूटना चाहिए और जान भी लेना चाहिए । जब उसके घर चोरी करने पहुंचे तो उस पुरुष को चोरों ने पकड़ लिया और कहा कि हम लोग चोर हैं, तुम्हारे पास जितना धन है वह सब लेंगे और तुम्हारी जान भी लेंगे. । तो उसने कहा कि ठीक है यह सब धन भी ले जावो और जान भी हाजिर है, किंतु एक प्रार्थना है कि हमने इस प्रभुमूर्ति को 20 वर्षों से पूजा है, अब हमारा अंत समय आया है, हमें थोड़ा अवकाश दीजिए कि हम इस मूर्ति को विधिपूर्वक इस पास की नदी में सिरा दे । उन चोरों ने विचार किया कि क्या हर्ज है । दो आदमी साथ चले जायेंगे, यह मूर्ति को सिरा देगा, इसे फिर साथ लिए आयेंगे । फिर धन जान तो लेना ही है । सो ले गये नदी के पास । जब मूर्ति को वह पुरुष सिराता है तो क्या कहता है कि हे प्रभो ! मुझे जान जाने की फिक्र नहीं है, जान जावे, पर एक इस बात का खेद है कि जिन हाथों से हमने आपको पूजा उन्हीं हाथों से अखंडित दशा में आपको हम सिरा रहे हैं, और दूसरा शल्य यह लग रहा है कि दुनिया के लोग क्या कहेंगे कि खूब तो पूजा प्रभु को और आखिर गति क्या हुई, मारे गए और उस मूर्ति को नदी में सिराना पड़ा, यह लोक में अपवाद होगा । तो आकाशवाणी हुई कि हे भक्त ! देख तेरी प्रभुपूजा व्यर्थ नहीं गई । इन चार चोरों को तूने पूर्वभव में मारा था, सो ये बदला लेने आये हैं । ये चार बार एक-एक करके तुझ को मारते, पर इस प्रभुभक्ति के प्रसाद से मुझे चार बार न मारकर केवल एक ही बार सभी मारने आये हैं । इस प्रभुभक्ति के प्रसाद से ही तेरी तीन बार की मौत कट गई । इतनी बात उन चोरों ने भी सुनी । तो सिराते समय उन चोरों ने कहा―ठहरो, अभी इस मूर्ति को मत सिरावो, वहाँ चलो, वहीं चलो हम सब इसका निर्णय करेंगे । सो उस मूर्ति को लिए हुए उस व्यक्ति को लेकर वे चारों ओर उसके घर गए । वहाँ चारों चोरों ने परस्पर में उस विषय में सलाह की और कहा कि यदि प्रभुभक्ति के प्रसाद से प्रभु ने इसके तीन मौत काट दिये तो क्या हम चारों मिलकर इसकी एक मौत भी नहीं काट सकते? सो उसको यों ही छोड़कर वे चारों चोर चले गए ।
त्रिलोकाधिपति भुवनेश्वर के गुणानुराग में रक्षा के सुयोग―भैया ! जो प्रभु के गुणों से अनुराग रखते हैं उनको कोई न कोई ऐसा प्रसंग मिल जाता है कि उनकी रक्षा होती है । एक श्रद्धापूर्वक णमोकार मंत्र का स्मरण करने से ही कितने ही विघ्न शांत हो जाते हैं, यह कुछ अनुभवी लोगों ने परखा होगा । तो यह प्रभु का स्मरण मात्र ही हमारा रक्षक है । वे प्रभु भुवनेश्वर हैं । ये प्रभु इस लोक के अंत में विराजमान हैं, तो ये लोकाधिपति हैं । प्रभु विराजे है ऊपर । लोगों की प्रकृति से ही सिद्ध है कि प्रभु ऊपर विराजे हैं । जब कोई प्रभु का स्मरण करता है तो अपना मुंह ऊपर उठाकर करता है, किसी को नीचे मुँह गड़ाकर प्रभुभक्ति करते हुए न देखा होगा अथवा न सुना होगा । तो ये प्रभु भुवनेश्वर हैं ।