वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2077
From जैनकोष
द्वयोर्गुणैर्मतं साम्यं व्यक्तिशक्तिव्यपेक्षय। ।
विशुद्धेंतरयो: स्वात्मतत्त्वयो: परमागमे ।।2077।।
परमात्मा के व्यक्त स्वरूप और अपने शक्त स्वरूप की समानता के अनुभव का प्रभाव―आगम में बताया है कि परमात्मा को स्वरूप विशुद्ध है, कर्मरहित है, और यह जो हम आप उपासना करने वाले हैं वे अभी कर्मसहित हैं और विशुद्ध सी नहीं हैं, किंतु शक्ति की अपेक्षा और व्यक्ति की अपेक्षा से यदि मिलान किया जाय अर्थात् जो उनका व्यक्त स्वरूप है एक अपने आपमें शक्ति रूप से मिलाया जय तो वहाँ समानता पायी जाती है । जैसे एक गर्म पानी और दूसरे ठंडे पानी में व्यक्ति की अपेक्षा से उनमें अंतर है लेकिन ठंडे पानी के व्यक्तस्वरूप को और गर्म पानी में इस प्रकार की दृष्टि से देखें कि इसका ठंडा स्वभाव है तो यह शक्ति से जो देखा और दूसरे शीतल जल में जो व्यक्तरूप देखा उसकी समानता मिली । इसी प्रकार भगवान में जो ज्ञानका, आनंद का चरम विकास है उसमें जो उनकी स्थिति है उसे हम अपने में शक्तिरूप से निरखते हैं तो एक समान है । तो यों व्यक्ति को और यहाँ शक्ति को जोड़ दिया ध्यान में तो इस तरह हम उस प्रभु के ध्यान में एक हो सकते हैं, लीन, निर्विकल्प हो सकते हैं । प्रभु का गुणगान कर के यदि अपने आपकी शक्ति का परिचय नहीं पाता है कोई तो आया किसलिए है? और बातें तो किसी प्रकार अन्यत्र भी बन सकती थीं, प्रभुभजन में तो यह दृष्टि लेना है कि जो प्रभु का आनंदमय स्वरूप है वह मेरे में शक्तिरूप है, हम भी उसी मार्ग पर चलें तो उसे प्रकट कर सकते हैं । तो अपनी शक्ति और प्रभु का व्यक्त स्वरूप, इनकी तो समानता है । तो अद्वैत के लिए एकाग्र चित्त होने के लिए रास्ता तो मिला । इस तरह अपनी शक्ति को छोड़कर उस व्यक्ति में यह जीव एकाग्रचित्त हो जाता है ।