वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2192
From जैनकोष
निद्रातंद्राभयभ्रांति रागद्वेषार्त्तिसंशयै: ।
शोकमोहजराजन्ममरणाद्यैश्च विच्युत: ।।2192।।
प्रभु की निर्दोष परिणति―यह प्रभु सिद्ध भगवान निद्रा, तंद्रा, भय, भ्रांति, रागद्वेष, वेदना, संशय, शोक, मोह, जन्म, जरा, मरण आदिक दोषों से अतीत हैं । क्या है वहाँ? एक अमूर्त ज्ञानपुंज । उन्हें नींद कहाँ से आये? केवलज्ञान है निरंतर, जागृत स्वरूप है, थकान का क्या काम? शरीररहित है, तो वहाँ तंद्रा क्या होगी, रोग कहां ठहरेंगे? जहाँ ज्ञान का विशुद्ध विकास है वहाँ ये रागद्वेषादिक समस्त दोष कहाँ ठहर सकते हैं । वे प्रभु जन्मजरामरण आदिक समस्त दोषों से मुक्त हो गए । जन्म के समय में बालक कुछ दुःखी होकर ही आता है ना, और तुरंत गर्भ से निकलकर इन्हीं आवाजों में तो रोता है―कहाँ-कहाँ । इसका यही तो अर्थ लगा लीजिये कि मैं कहाँ आ गया? अभी देवताओं का वर्णन करते हुए बताया गया था
कि जब वे दैव उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होकर जवान हो जाते हैं तो वे यह सोचते हैं कि मैं यहाँ कहाँ आ गया, ऐसे ही यहाँ मनुष्यों का जन्मजात बच्चा अपने मुख से स्पष्ट तो नहीं बोल सकता, पर निकलते इसी तरह के शब्द हैं―कहां-कहां, उसका अर्थ यही है कि वह सोचता है कि मैं कहां आ गया? वह बच्चा तो रो रहा है, दुःखी हो रहा है और घर के लोग ढोलक बजा रहे हैं, खुशियां मना रहे हैं । अरे जन्म के समय में भी मरण का जैसा दुःख होता है । इन दुःखों से छुटकारा पाने के लिए यह मरण तो मदद कर सकता है, पर जन्म मदद नहीं कर सकता । अरहंत भगवान के, निर्वाण का नाम है पंडितपंडितमरण और साधुपुरुषों के मरण का नाम है पंडितमरण और श्रावक ब्रह्मचारी के मरण का नाम है बालपंडितमरण और अविरत सम्यग्दृष्टि के मरण का नाम है बालमरण, किंतु मिथ्यादृष्टि लटोरे खचोरों के मरण का नाम है बालबालमरण । तो जो विवेकपूर्वक, सम्यक्त्वपूर्वक, समाधिपूर्वक मरण होता है वह मरण संसार के संकटों से छुटकारा करा देगा, पर कोई भी जन्म ऐसा नहीं है जो कि इन संकटों से छुटकारा करा सके ।
अज्ञान में मरणभय―इन जीवों की एक आदत बन गयी है, मरण से डर लग रहा है, जन्म में लोग खुशी मनाते हैं, लेकिन उस मरण से क्या डरना जो हमारे हित में साधक है ।मरण से तो वे डरें जिन्हें अपने स्वरूप की सम्हाल नहीं है । जिनके इस वैभव में, परिजनों में बाह्य में प्रीति बसी है, मोह है, अंधेरा छाया है, डर तो उनको है । एक बहुत पुरानी बुढ़िया थी, वह अपने कमरे में पड़ी रहा करती थी, नाती पोते बहुवें जो कुछ खाने पीने को दे दे उसे वह खा पी लेती थी, न दें तो यों ही पड़ी रहे । वह रोज-रोज हाथ जोड़कर भगवान से प्रार्थना करती थी कि हे भगवन, तू अब मुझे उठा ले । अर्थात् मैं मर जाऊँ तो अच्छा है । एक दिन उसके पास से एक सांप निकला, वह चिल्लाई―अरे बच्चों बचावो-बचावो, सांप आया । तो वे पोते कहते हैं―अरी बुढ़िया दादी तू क्यों चिल्लाती है? तू रोज-रोज भगवान से प्रार्थना किया करती थी कि मुझे उठा ले, तो भगवान ने तेरी प्रार्थना सुन ली है, तुझे उठाने के लिए दूत भेजा । तो भाई मरना कोई नहीं चाहता । सभी मरने से डरते हैं । लेकिन जो मरना नहीं चाहते तो वे तो कहो मर जायें और जो मरण चाहते वे कहो न मरें । नारकी जीव बहुत चाहते हैं कि हम मर जाये, पर शरीर के तिल-तिल बराबर खंड हो जाने पर भी वे खंड पारे की तरह मिल जाते हैं, वे नारकी जीव असमय में नहीं मरते । तो वे प्रभु इन समस्त प्रकार के दोषों से रहित हैं ।