वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 48
From जैनकोष
रागद्वेष निवृत्तिहिंसादिनिवर्तना कृता भवति ।
अनपेक्षितार्थवृत्ति: क: पुरुष: सेवते नृपतीन् ।। 48 ।।
रागद्वेषादि की निवृत्ति में ही हिंसादि की निवृत्ति―रत्नकरंड का यह तीसरा अधिकार चल रहा है । इसमें सम्यक्चारित्र का वर्णन होगा । चारित्र क्या कहलाता है? हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन 5 पापों से निवृत्त हो जाना और अपने ज्ञान स्वभाव में उपयुक्त हो जाना वह सम्यक्चारित्र है । चारित्र एक है, निवृत्ति की दृष्टि से कथन है । एक प्रदेश की दृष्टि से कथन है । निवृत्ति की ओर से यह परिभाषा बनेगी । हिंसा आदिक 5 पापों से निवृत्त होना चाहिए । वृत्ति की दृष्टि से यह परिभाषा चलेगी कि आत्मा के ज्ञानस्वभाव में उपयोग का स्थिर होना, लीन होना सम्यक्चारित्र है । इस छंद में यह बतला रहे कि हिंसा आदिक 5 पापों से निवृत्त होना चाहिए । वृत्ति की दृष्टि से यह परिभाषा चलेगी कि आत्मा के ज्ञानस्वभाव में उपयोग का स्थिर होना, लीन होना सम्यक्चारित्र है, इस छंद में यह बतला रहे कि हिंसा आदिक 5 पापों की निवृत्ति वहाँ हो जाती है जहाँ रागद्वेष की निवृत्ति है । कोई भी जीव क्यों हिंसा करता है? रागद्वेषादिक विकार जगे हैं उनसे प्रेरित होकर हिंसा करता है । इसी प्रकार झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि पापों की भी यही बात है । क्यों करता है यह जीव पाप? भीतर में रागद्वेष उठते हैं, उनकी पीड़ा नहीं सही जाती है और उस पीड़ा को शांत होने का उपाय यह जीव विषयों में प्रवृत्ति करना समझता है, विषयों में लगता है रागद्वेष न रहें तो फिर पाप में वह कैसे प्रवृत्ति करेगा? जैसे जिसको कोई अपेक्षा न हो वह राजा की क्यों सेवा करेगा? राजा की सेवा में अनेक अनर्थ हैं । हमेशा दिल सम्हालते रहने से राजा गुस्सा हो जाय तो अनर्थ और कैसे राजा प्रसन्न हो उस प्रकार को चापलूसी की बात सोच डालना, हर समय का डर । अनेक उसमें अनर्थ चलते हैं तो ऐसा एक अनर्थ की बात, कष्ट की बात कोई क्यों करता है कि उसके कोई रागद्वेष है । रागद्वेष आया है इसलिए जीव हिंसा की चेष्टा करता है । रागद्वेष दूर हो गए तो फिर कोई क्या करेगा? ब्रह्म गुलाल एक ऋषि हुए हैं, जिनका कथानक यों है कि उनको भेष धारण करने की कला आती थी । कुछ विद्या भी थी कि जिसका भेष बनाया वही जंचे । राजा उसकी इस कला को देखकर उनपर खूब प्रसन्न रहा करता था । जिसके कारण अन्य मंत्रीजन उनसे जलने लगे कि इसकी तो मेरे से ज्यादा पूछ होने लगी । तो मंत्रियों ने सोचा कि ऐसा उपाय करें कि ब्रह्मगुलाल से छुटकारा ही हो जाय । क्या उपाय? राजा से यह कहा कि राजन् आप ब्रह्मगुलाल से यह कहो कि सिंह का रूप रखकर दिखाये । कहा राजा ने तो ब्रह्मगुलाल ने कहा―राजन् यह काम तो हम तब दिखा सकते जबकि हम से मानो एक दो अपराध हो जायें तो माफ कर दिया जाय । राजा ने कहा माफ । आखिर ब्रह्म गुलाल ने सिंह का रूप रखा, वहाँ राजा के लड़के ने उस सिंह को कोई अपशब्द बोल दिया, मानो कुत्ता आया ऐसा बोला हो तो सिंह ने पंजा मारकर उस लड़के को खत्म कर दिया । मंत्री लोग तो चाहते ही थे कि इस ब्रह्मगुलाल से कोई अपराध बन जाय और राजा इसको फांसी दे-दे । हो सकता है कि इस उपाय में मंत्रियों ने राजा के पुत्र को पहले से ही सिखा दिया हो कि सिंह को देखकर तुम ऐसा बोल देना । पर राजा कैसे फांसी दे सके क्योंकि अपराध माफ कर चुका था । जब इस तरह भी मंत्रियों की चाल न चली तो एक उपाय उन्हें और सूझा ।
राजा से कहा―राजन् इस बार ब्रह्मगुलाल से कहो कि वह मुनि का भेष धर कर दिखावे । कहा राजा ने, तो ब्रह्मगुलाल बोले―राजन् इस काम को करके तो दिखायेंगे पर अभी नहीं, छ: महीने की मोहलत दीजिए उसकी तैयारी के लिए तब दिखायेंगे । ठीक है । अब छ: माह तुक ब्रह्मगुलाल ने खूब ध्यान मग्न तत्त्वचिंतन वैराग्य आदि से पूरित अपना उपयोग कर लिया और छ: माह बाद मुनि होकर राजदरबार के सामने से निकला । वहाँ राजा ने बहुत-बहुत मिन्नतें की, अरे लौट आओ हमने तो सिर्फ दिल बहलाने के लिए भेष धरने को कहा था, पर ब्रह्मगुलाल मुनि अब वापिस न हुए । मुनि भेष रखकर फिर बदला नहीं जा सकता । तो जब उसने 6 माह तैयारी कर ली कि मेरे में कोई रागद्वेष न जगे, तो उनसे उनके पांचों पाप छूट गए । तो मुख्य बात है रागद्वेष की निवृत्ति होना ।
रागद्वेषादि भाव से सहजात्म प्रभु की हिंसा―पांचों प्रकार के पाप रागद्वेष के वश होते हैं इस कारण इनको पाप कहते हैं । किसी बाहरी द्रव्यचेष्टा से पाप नहीं लगता किंतु उसका अनर्थ करने का भाव है इसलिए उसे हिंसा लगती है । पाप जितने होते हैं वे भीतर के आशय से होते हैं, बाहरी चेष्टा के कारण नहीं होते । तब कोई मानो कहे कि हम भीतर का आशय तो पवित्र बनाये रहेंगे और हमारे शरीर की चेष्टा चलेगी, तो ऐसा नहीं होता । जैसे भीतरी भाग होता है उसके अनुसार चेष्टायें होती है । कोई अपवाद की चीज है ऐसी कि भाव-भाव नहीं है और कोई चेष्टा या हिंसा हो जाय यह अपवाद की बात है, पर अक्सर यह होगा कि जैसी भीतरी हृदय होगा वैसी चेष्टायें बनेगी । वैसे वचन निकलेंगे, वैसी प्रवृत्ति होगी । तो मूल बात चारित्र की यह है कि रागद्वेष दूर हो जाना । अच्छा जरा भीतर तो निहारो ‘मेरे को दुःख पहुंचाने वाला कौन है’ आप कहेंगे कि अमुक लोग, अमुक चीज, जड़ का नाम बताया, किसी जीव का नाम बताया । तो यह तो निरखिये कि उस जड़ से उस वस्तु से दुःख निकलता है क्या? जो दुःख निकलकर मुझ में आया । किसी पदार्थ से दुःख नहीं होता, यह बिल्कुल निश्चित बात है-दुःख होता है आपकी विरुद्ध कल्पना से । तो कितने ही दुःख हो, सर्व दुःखों में आप यही बात पायेंगे कि हमारे भीतर वस्तु स्वरूप के विरुद्ध कल्पनायें जगती हैं उससे हम को दु:ख होता है ।
दुर्लभ नरजन्म में सहजात्मस्वरूपदर्शन की कला पाने का महत्त्व―देखिये यह जीवन बड़ा दुर्लभ है जो हम आपको मिला है । इस जीवन में यदि यह शौक लग जाय, यह अभिरुचि हो जाय, यह धुन बन जाय कि मुझ को तो अधिक समय इस सहज आत्मस्वरूप के अनुभव में लगना है, बाकी बातें बेकार हैं । अपने सहज स्वरूप के अनुभव में अपना उपयोग लगायें तो उसके प्रताप से जब तक संसार में रहना शेष है तब तक वैभव राज्य या अन्य-अन्य बातें ये मिलेगी, मिलनी पड़ेगी, पर इनकी भी चाह नहीं होती । ये होते हैं ऐसे । एक अपने घर के किसी को आप विलायत भेजे, अमेरिका भेज रहे तो कितना सुगम समारोह कर के आप भेजते हैं, उससे बीसों आदमी आ आकर मिलेंगे, मोटर से पहुँचाने जायेंगे, उसका तिलक करेंगे, उसे नारियल भेंट करेंगे, सगुन मनायेंगे, चूंकि दो-चार वर्ष को वह जा रहा है ना इसलिए उसका सगुन समारोह मनाया और इतने ठाठ से वह जाता है वैभव के साथ । लोगों की प्रशंसा के साथ सुखपूर्वक जाता है । अनेक साधन उसे देते हैं । तो साल दो साल को यहाँ ही कोई विलायत जाय तो कैसा ठाठ समारोह वैभव आराम के साथ जाता है । तो जो जीव सदा के लिए इस संसार से विदा होगा मायने मोक्ष जायगा जो हमेशा के लिए निर्वाण को जा रहा है उसकी विदायगी के लिए अगर इंद्र आकर निर्वाण कल्याणक मनाते, बड़े उत्सव समारोह मनाते तो उसमें कोई आश्चर्य है क्या? वे तो अनंत काल के लिए विलायत जा रहे हैं, और वे जो जायेंगे तो क्या दुख पूर्वक जायेंगे? बड़े सुख वैभव ठाटबाट इन सबके बीच रहकर जायेंगे । तो अपनी एक धारणा बनायें और निरखें कि मेरे को कर्तव्य और शरण केवल एक ही चीज है कि मेरा जो सहज आत्मस्वरूप है, अपनी सत्ता के ही कारण अपने आप में जो मेरा स्वरूप है अमूर्त ज्ञानमात्र, इस स्वरूप में मैं आत्मबुद्धि करूं कि मैं यह हूँ और जो मैं चेतन में चेतन तरह की एक निरंतर वृत्ति बनती है, प्रतिभास बनता है, भीतर जो एक प्रतिभास चलता है वह मेरा काम है और ऐसे प्रतिभासन के समय जो मेरे को सहज आनंद जग रहा है बस उसको भोगना मेरा काम है, इससे बाहर मेरा मतलब कुछ नहीं।
आत्मस्वरूप के दर्शन की धुन में ही आत्महित का निर्णय―भैया कुछ जा रहा है बाहर चित्त तो वह बेकार है और अपने लिये अनर्थ है । धुन में यह बात समाये और इसी का लक्ष्य बने कि इस जीवन में मेरे को सहज आत्मस्वरूप का अनुभव करना है, बाकी जगत की अन्य बातों पर मेरा अधिकार भी नहीं है । हो जाय पुण्योदय से अनुकूल और उस पुण्ययोग के अनुसार पुरुष पौरुष और प्रयत्न भी हो जाय तो भी अधिकार पूर्वक यह बात नहीं आयी है कि मैं अमुक पदार्थ की ऐसी घटना बना दूंगा । मेरा मेरे पर अधिकार है, मेरा मेरे पर वश है । इस कला की प्राप्ति करने के लिए इतना ज्ञान प्रकाश चाहिए कि बाहर की घटनाओं में मान अपमान महसूस न करें, केवल एक ही बात है आत्मकल्याण की ही धुन है, यह बात चाहिए भीतर ऐसा करने में आपको किसी तरह का नुकसान नहीं है । जब तक रहेगा संसार में तब तक ठाठ से रहेगा, निर्वाण पायेगा, अनंत काल के लिए छुटकारा पायगा, इस कार्य के सिवाय दूसरा कोई बड़प्पन का कार्य नहीं है, बाकी सब मायाजाल है । कौनसा कार्य करना है? अपने आपके आत्मा में जो सहज ज्ञानस्वरूप है उस रूप अपने को अनुभवना कि मैं यह हूँ, बाकी क्या नहीं करना? अमुक चंद हूँ, अमुक का पिता हूँ, अमुक का पुत्र हूँ... ये सब बातें माया जाल हैं, इनका विकल्प नहीं करना है । हां गृहस्थी में है तो गृहस्थी के नाते कुछ कर्तव्य करने होते है मंदिर जाना, धर्म ध्यान करना, आजीविका संबंधी कार्य करना, ये सब तो होंगे मगर चित्त में किसी समय यह बात तो बसना चाहिए कि मेरा हित केवल सहज आत्मस्वरूप के अनुभव में है, अन्य बातों में मेरा हित नहीं है । अन्य बातें तो परिस्थिति के कारण करनी पड़ती है ।
ज्ञानी के आत्महित के कार्य की मुख्यता―अज्ञानी के और ज्ञानी के विचार में कितना अंतर होता है । अज्ञानीजन ऐसा सोचते कि आजीविका के काम से समय मिलेगा तो मंदिर जाऊंगा । अरे इतनी भी फुरसत नहीं कि जिनवाणी के दो शब्द सुनने का भी मौका निकाल सकें । कह देंगे अजी फुरसत नहीं है क्या करें, मंदिर नहीं पहुंच पाते । तो उनका इस प्रकार का बहाना करना ठीक नहीं । फुरसत सबको है पर व्यर्थ के विकल्प के रोजगार बनाये जा रहे इससे फुरसत नहीं, अर्थ संबंधी रोजगार की वजह से फुरसत न हो सो बात नहीं । ज्ञानीजनों को इतनी लगन होती कि मंदिर दर्शन, स्वाध्याय, चर्चा, गुरुसेवा, मनन आदि करने में उनको उमंग होती । आजीविका संबंधी कार्यों के लिए तो उन्हें दुखी होकर परिस्थितिवश जाना पड़ता है । इसमें तो उन्हें कष्ट मालूम देता । आत्मा की चर्चा में, मनन में ज्ञानीजनों की उमंग रहती इतना अंतर रहता ज्ञानी और अज्ञानी के आशय में । सारभूत काम केवल सहज आत्मस्वरूप का मनन है । सहज आत्मस्वरूप के मायने आत्मा है या नहीं पहले यह निर्णय करें । है, जिसमें हूं-हूं की बात चल रही । वही तो मैं हूँ । मेरा अस्तित्व है । ये दुख सुख किसमें होते? है कोई पदार्थ कि मैं हूँ । अब यह विचारें कि जो है, होता है वह अपने आप अपने स्वरूप से है होता है । सदा से हूँ तो यह मैं अपने आपके स्वरूप से अपने ही सत्त्व से । मैं क्या हूं? केवल चैतन्यस्वरूप । एक भीतर झलकता हुआ चैतन्यप्रकाश । जहाँ ज्ञान और आनंद का ही अनुभव है । वह स्वरूप बस मैं यह हूँ, ऐसा ही अपना ध्यान बनायें । बस यह ही उपाय है सहज आत्मस्वरूप के अनुभव का । अब आप सोच लीजिए कि जगत में अभी तक कितने ही काम कर डाले मगर इस जीव ने यह काम नहीं किया अब तक और इस सहज आत्मस्वरूप का अनुभव पाये बिना यह कभी निर्वाण नहीं पा सकता, शांति नहीं पा सकता । कर्मो से छुटकारा नहीं हो सकता, शरीर से छुटकारा नहीं हो सकता । तो वास्तव में केवल एक ही काम है करने का, दूसरा काम करना पड़े तो उसे यह समझिये कि परिस्थितिवश करना पड़ रहा है, पर करने का काम तो यह है । इतनी ही बात चित्त में हो तो उसकी धर्म मार्ग में प्रगति हो सकती है । हां तो अब देखिये―स्वरूप तो मेरा यह है केवल चैतन्य प्रकाश इससे आगे नहीं है । आगे जो विकल्प चल रहे, विकार हो रहे, रागद्वेष हो रहे वे सब कर्म की उपाधि की छाया में हो, रहे केवल मेरे इस स्वरूप के कारण नहीं हो रहे । तो ये रागद्वेष ये ही कष्ट हैं । रागद्वेष के भाव न हों तो ये कष्ट मिट जायेंगे । तो रागद्वेष की निवृत्ति ही हिंसा आदिक पापों की निवृत्ति कहलाती है ।